

धीरे-धीरे एहसास हो रहा है कि सरकार की नीतियां किसानों को मिट्टी में मिला रही हैं। एक ओर विदेशों से कृषि उपज का आयात करके सरकार देश के स्थानीय बाजारों में सही कीमत भी नहीं देती, और दूसरी ओर निर्यात को भी बाधित करती है। सरकार यानी कोई भी सत्ताधारी पार्टी, इसी मकसद से काम कर रही है कि महंगाई का खामियाजा शहरी उपभोक्ताओं यानी वोटरों को न भुगतना पड़े। राजनेता पिछले पचास वर्षों से किसानों को अधिक उत्पादन करने के लिए मजबूर कर अधिक उत्पादन करने के लिए यह चाल चल रहे हैं और एक बार फसल हाथ में आने पर वे कीमत कम करके सस्ते में बेचते हैं। किसानों के मुद्दों को केवल सत्ता हासिल करने की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करने, असहायों को उम्मीद देने और फिर उन्हें अधर में छोड़ देने के लिए राजनीतिक दलों का एक नया फंडा बन गया है। राजनीतिक पार्टियों के सामने अब चुनाव जीतना ही एकमात्र बड़ा उद्देश्य रह गया है और निर्वाचित होने के बाद एक-दूसरे को बदनाम करने, नखरे करने, हिंदू-मुसलमान करते हुए पांच साल गंवाने का चलन बन गया है और मतदाताओं ने इसे पचा भी लिया है।
मूल रूप से, यदि कृषि-उपज की उत्पादन लागत मान ली जाए, तो ‘मुद्रास्फीति’ (महंगाई) की परिभाषा यहाँ लागू नहीं होनी चाहिए। साबुन, पेट्रोल, डीजल, गैस, दवाइयां, किताबें, सीमेंट, लोहा, मोबाइल डेटा, दोपहिया, चौपहिया, सिनेमा, केबल टीवी, रेलवे, बस टिकट के दाम चाहे कितने भी बढ़ जाएं, चाय, भाजी, होटलों में चपाती, सब्जियों के दाम कितने भी बढ़ जाएं, इस पर कोई होहल्ला नहीं करना चाहता, लेकिन अगर किसानों द्वारा उत्पादित खाद्यान्न, दूध, फल, सब्जियां, प्याज, आलू, तेल, दालों आदि के दाम थोड़ा भी बढ़ जाते हैं, तो शहरों में ‘महंगाई’ बढ़ने का होहल्ला शुरू हो जाता है। भले ही उन सामानों को पैदा करने वाला किसान आत्महत्या कर ले। शहरी मध्यवर्ग की इस मानसिकता को बदलना एक बहुत बड़ी चुनौती है।
अखबार/मीडिया वाले भी तब सुर्खियां लगाते हैं कि कृषि उपज, दूध, दाल या मेथी/धनिया आदि महंगे हो गए हैं। हकीकत यह है कि शहरी लोगों की बदलती जीवनशैली, ओछी संस्कृति के कारण मासिक खर्च तीन गुना हो गया है। इस पर्दे के पीछे छिपी अदृश्य महंगाई को जानबूझ कर नजरअंदाज किया जा रहा है। लेकिन अगर मेथी के दाम पांच रुपये बढ़ जाएं तो क्या ‘महंगाई’ शुरू हो जाती है? जैसे ही कृषि उपज और सब्जियों के दाम थोड़े बढ़ते हैं, रोना-धोना शुरू हो जाता है। जैसे ‘घर में खाना पकाने की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है’, ‘हम कैसे रहें’, ‘आम लोगों की कमर टूट गई है’, ‘महंगाई आसमान छू गई है’, ‘प्याज ने रुला दिया है’।
वास्तव में ऐसे मीडिया पर अफवाह फैलाने के आरोप में मुकदमे दर्ज होने चाहिए या कम से कम किसानों को इसका बहिष्कार करना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले किसानों और खेतिहर मजदूरों की तुलना में शहरी मध्य वर्ग बहुत समृद्ध है। आज कृषि इनपुट्स के अर्थात रासायनिक खाद, पंप, औजार, बीज, बिजली, पानी, मशीनरी, श्रम, परिवहन, डीजल, चारे के दाम बेतहाशा बढ़ गए हैं। ऐसे समय में कोई नहीं कहता कि महंगाई बढ़ गई है, कोई मोर्चे नहीं निकलते।
आइए, हम पिछले 50 वर्षों में महंगाई (मुद्रास्फीति) का संक्षिप्त लेखाजोखा देखते हैं। उसके लिए हमें 70-80 के दशक में प्रवेश करना होगा। 1973 में 600 रुपये मासिक वेतन वाले प्रोफेसर की आज की तनख्वाह 1 लाख 78 हजार 680 रुपये है। इसमें 300 गुना की बढ़ोतरी हुई है। 1972 में 180 रुपये तोला बिकने वाले सोने का भाव आज 65 हजार रुपए तोला हो गया है। यानी यह 365 गुना बढ़ गया। 1973 में 2 रु. प्रति लीटर वाला डीजल आज 94 रुपए प्रति लीटर है, यानी यह 47 गुना बढ़ गया। 1973 में 3 रु. प्रति लीटर वाला पेट्रोल आज 106 रुपए प्रति लीटर हो गया है, यानी 36 गुना वृद्धि। 1973 में, केंद्र में कांग्रेस के शासन के दौरान, अटल बिहारी वाजपेयी ने पेट्रोल की कीमत में मात्र सात पैसे की वृद्धि के कारण संसद तक बैलगाड़ी मार्च निकाला था।
इसके विपरीत कृषि जिंसों की कीमतों पर नजर डालें, तो 1973 में गेहूं का भाव प्रति क्विंटल 180 रु. था। जबकि दरअसल, इस साल के रबी सीजन में गेहूं को 2,015 रुपये प्रति क्विंटल का सुनिश्चित मूल्य प्राप्त हुआ, जो कि 50 वर्षों में केवल 11 गुना वृद्धि है। 1973 में ज्वार 200 रुपये प्रति क्विंटल था। जबकि खरीफ सीजन 2023-24 के लिए ज्वार को 3180 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत मिली। यानी 50 वर्षों में सिर्फ 15 गुना वृद्धि। 1973 में कपास का भाव 275 रु. प्रति क्विंटल था, जबकि खरीफ वर्ष 2023-24 के लिए कपास के लिए 7020 रु. प्रति क्विंटल का गारंटीमूल्य दिया गया, जिसका अर्थ है कि 50 वर्षों में सफेद सोना केवल 22 गुना बढ़ा!
ये आंकड़े कृषि जिंसों और अन्य चीजों की बढ़ी हुई कीमतों के बीच के अंतर को दर्शाते हैं। यानी वास्तव में महंगाई किस वजह से बढ़ी है, ये दर्शाते हैं।
सरकार का दावा है कि किसानों की आय में दस गुना वृद्धि हुई है, लेकिन जो लोग 2022 तक कृषि उपज की कीमत को दोगुना करना चाहते थे, वे कृषि उपज की कीमत कम करके और दूसरी ओर लागत मूल्य बढ़ाकर और उन वस्तुओं को जीएसटी के दायरे में लाकर किसानों को मार रहे हैं।
दुर्भाग्य से ऐसी स्थिति में भी बढ़ती महंगाई का शोर केवल कृषि उत्पादों यानी खाने-पीने की चीजों के संदर्भ में ही होता है।
आखिर महंगाई की आपकी परिभाषा क्या है?
सोना, चांदी, लोहा, तांबा, पीतल और अन्य धातुएं महंगी नहीं लग रही हैं? 2014 से पहले सीमेंट की कीमत 195 रुपये प्रति बैग थी, वर्तमान में 50 किलो सीमेंट के एक बैग की कीमत 415 रुपये है। 2014 की तुलना में आज देश में स्टील की कीमतों में करीब 60 फीसदी का इजाफा हुआ है। स्टील की मौजूदा कीमत 62,000 रुपये से 64,000 रुपये प्रति टन है। 2014 से पहले स्टील 37,000 से 39,000 रुपये प्रति टन था। चूंकि सीमेंट और स्टील किसी भी निर्माण के लिए आवश्यक सामग्री हैं, जब उनकी कीमतें बढ़ती हैं, तो अन्य सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। जब स्टील की कीमतें 10 प्रतिशत बढ़ती हैं, तो घर की कीमतें आधा प्रतिशत बढ़ जाती हैं।
2014 से पहले रेत की एक ट्रॉली 1500 रुपए में मिलती थी, अब इसके लिए ट्रांसपोर्ट सहित 8 हजार रुपए खर्च करने पड़ते हैं। 2014 से पहले एक मोटरसाइकिल की कीमत 50 हजार रुपए थी, अब 90 हजार रुपए से डेढ़ लाख रुपए हो गई है। 2014 से पहले मेडिक्लेम बीमा 1049 रुपये प्रति 1 लाख रुपये था, अब यह 4100 रुपये है। पहले डिश रिचार्ज 110 रुपये का था, जो अब 450 रुपये हो गया है। 2014 से पहले 350 रुपये में मिलने वाला गैस सिलेंडर अब 1100 रुपये के ऊपर पहुंच गया है। उस समय गैस सब्सिडी 250 रुपये थी, अब शून्य रुपये यानी कुछ भी नहीं है। पहले वाहन नियमों के उल्लंघन पर 100 रुपये का जुर्माना वसूला जाता था, अब 10 हजार रुपये का जुर्माना लगाया जाता है। 2014 से पहले महज 250 रुपए में ड्राइविंग लाइसेंस बनवाया जाता था, अब इसकी कीमत 5500 रुपए है। घरेलू बंदूकों को 1,000 रुपये में रिफर्बिश किया जाता था, अब इसकी कीमत 6,000 रुपये है। रेलवे प्लेटफॉर्म टिकट पहले 5 रुपये था, अब 10 रुपये हो गया है।
2014 में, 3 इंच के पीवीसी पाइप की कीमत 314 रुपये थी, जो अब 500 रुपये है, और डीएपी उर्वरक के एक बैग की कीमत 620 रुपये थी, जो अब 1,350 रुपये है। 2014 से पहले 50 हॉर्स पावर के ट्रैक्टर की कीमत 6 लाख 40,000 रुपये थी, जो अब 8 लाख 10,000 रुपये है। वर्ष 2014 के पूर्व केरोसिन रु.20 प्रलि. था, अब 60 रुपये प्रतिलीटर है। इतना ही नहीं, अब तो यह मिलना भी बंद हो गया है। पहले मोबाइल इनकमिंग फ्री थी, अब एक्टिवेशन के लिए 99 रुपये प्रति माह देना पड़ता है और जियो जिसे फ्री-फ्री के तौर पर प्रचारित किया जाता था, उसके लिए अब 500 से हजारों रुपये देने पड़ते हैं। पहले एटीएम निकासी शुल्क शून्य रुपये था, अब तीन बार से अधिक निकालने पर शुल्क हर बार 20 रुपये हो गया है। अन्य शुल्क बैंकिंग सेवाओं के लिए अलग से लगाए जाते हैं। रोड टैक्स के बावजूद टोल टैक्स अलग तरीके से वसूला जाता है। इन नौ वर्षों में अन्य वस्तुओं के लिए मुद्रास्फीति (महंगाई) के आंकड़े पिछले (1973 से 2023) 50 वर्ष के आंकड़ों की तुलना में चौंका देने वाले हैं।
वहीं, दूसरी तरफ कृषि उत्पादों की महंगाई कितनी है..? आज प्याज की डिलीवरी 5 रु. प्रति किग्रा. होती है। दाल के दाम 100 रुपये से ज्यादा होते ही जोरदार चीख-पुकार मच जाती है। तुअर से दाल बनाने में 30 प्रतिशत की कमी होती है, यानी 100 किलो तुअर से 70 किलो दाल बनती है। यानी जब दाल 100 रुपये की हो, तो तुअर ज्यादा से ज्यादा 70 से 80 रुपये की होती है।
जब हम महंगाई का पैमाना देते हैं, तो हमेशा खाने-पीने का ही उदाहरण देते हैं। हालांकि, उपरोक्त आंकड़े स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि अन्य वस्तुओं की कीमतों और प्रोफेसरों और सरकारी कर्मचारियों के वेतन में कम से कम 150 से 600 गुना वृद्धि हुई है, जबकि कृषि वस्तुओं की कीमतों में केवल 15 से 20 गुना वृद्धि हुई है।
जिस दिन हम महंगाई की तुलना डीजल, पेट्रोल, साबुन, डेटा, डॉलर, सोना, धातु, सिर्फ खाने-पीने की चीजों से करने लगेंगे, उस दिन किसानों को राहत मिलने लगेगी और हमें इसका जवाब मिल जाएगा कि किसान आत्महत्या क्यों करते हैं? उसके लिए किसानों के सवालों की व्यवस्था बदली जानी जरूरी है। किसानों की आत्महत्या पर शोक व्यक्त करके उसे भूल जाने के बजाय हकीकत को समझना चाहिए।
अतीत में, खासकर 2014 के बाद, नेताओं/पार्टियों का यह तरीका रहा है कि वे लोगों को भावनात्मक रूप से भड़काएं, उन्हें जातिगत विवादों में शामिल करें, अपना उल्लू सीधा करके सत्ता हासिल करें और फिर किसानों के मुद्दों की अनदेखी करें…!
वो उकसाएंगे,
तुम रह नहीं पाओगे
धर्म कभी संकट में नहीं होता,
कुछ मूर्खों के कारण आपके
आदर्शों का अपमान नहीं होता,
मजबूत भावनाओं के लिए,
बहुत बार चोट मत करो,
यहां थोड़ी उपेक्षा करो
वहाँ ध्यान मत दो।
एक साल में हल होंगे सारे मसले
क्योंकि चुनाव नजदीक हैं।
ये सभी वोटों के समीकरण हैं,
एक-दूसरे के पीछे छिपी राजनीति है।
अपना रास्ता खुद बंद करो,
उनके साथ मत चलो।
यदि आप पीछे हटते हैं,
वातावरण खट्टा होगा,
कुछ भी अच्छा नहीं
अगर ऐसा होता है,
तो यह और भी बुरा होगा।
किसी का कुंकुम मिटेगा
तो कोई पानी के लिए तरसेगा।
तब सत्य अंदर प्रवेश करेगा और
जमानत भी नहीं होगी,
इस दरार को फैलाने से
कोई समस्या हल नहीं होगी,
पेट्रोल सस्ता और गैस सस्ती
नहीं मिलेगी बढ़ी हुई सब्सिडी!
आप सिर्फ अपनी नाक से
बैंगन नहीं उठा सकते!
मतदान करने जाते समय
कर विचार
मेरा वोट ही है मेरी सरकार।
इसलिए चुनिए किसान सरकार!
–प्रकाश पोहरे
(संपादक– मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
संपर्क : 98225 93921
2prakashpohare@gmail.com