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1938 में जब देश आज़ाद होने वाला था, तब तत्कालीन सीपी एंड बरार प्रांत की विधानसभा द्वारा विदर्भ के 11 जिलों को एक राज्य बनाने का प्रस्ताव पारित किया गया था। इस सीपी एंड बरार की राजधानी के रूप में नागपुर को बहुत सम्मान प्राप्त था। बाद में उस राजरिवाज को खोने के बाद विदर्भ महाराष्ट्र में शामिल हो गया। विदर्भ को महाराष्ट्र में रहने के लिए नागपुर समझौते पर हस्ताक्षर किये गये। उसके बाद शासक विदर्भ को केवल अपना उपनिवेश मानने लगे। हालाँकि, यह सच है कि नागपुर समझौते का गाजर दिखाकर ‘मुंबई के रास्ते’ विदर्भ की संपत्ति लूटने की दिल्ली के शासकों की ‘दूरदर्शिता’ थी।
एक ज्वलंत मुद्दा है। विदर्भ के नागपुर से सीधे जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट (जेएनपीटी) तक ‘समृद्धि हाईवे’ का निर्माण किया गया। मैं इसे ‘दुर्बुद्धि महामार्ग’ कहता हूं। उसी खनिज संपदा को गोवा बंदरगाह से बाहर भेजने के लिए एक और राजमार्ग बनाना तय हुआ है। महाराष्ट्र में खनिज संपदा की तस्वीर देखें तो 97 फीसदी खनिज संपदा विदर्भ में है। विदर्भ में कोयला, चूना पत्थर, मैंगनीज, लौह अयस्क, बॉक्साइट, क्लेनाइट, सिलेनेनाइट आदि 23 प्रकार की खनिज संपदा है। इसके बावजूद इन खनिजों का प्रसंस्करण करने वाले उद्योग विदर्भ में नहीं आये हैं। बल्कि ये सभी खनिज संसाधन इसी ‘समृद्धि महामार्ग’ के माध्यम से विदर्भ से जेएनपीटी बंदरगाह तक जाते हैं और वहां से देश या दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जाते हैं। हालाँकि ये सभी खनिज संसाधन विदर्भ से होकर गुजरते हैं, लेकिन विदर्भ को रॉयल्टी नहीं मिलती है। 97 प्रतिशत खनिज संपदा विदर्भ में है और शेष 3 प्रतिशत कोंकण में है। 7 हजार 474. विदर्भ में 08 मिलियन टन खनिज भंडार हैं। विदर्भ के नागपुर, भंडारा, गोंदिया, यवतमाल, चंद्रपुर, गढ़चिरौली, वर्धा जिले खनिजों से समृद्ध हैं। इनमें मैग्नीशियम अयस्क, लौह अयस्क, कायनाइट, लिलोमेनाइट, पायरोलाइट, कॉपर अयस्क, क्रोनाइट, डोलोमाइट, वैनेडियम अयस्क, जस्ता और सीसा अयस्क, ग्रेनाइट आदि खनिज प्रचुर मात्रा में हैं। अन्य राज्यों में प्रसंस्करण उद्योगों पर खनन परमिट सशर्त दिया जाता है, लेकिन यहां नहीं।
दरअसल, खनिज प्रसंस्करण उद्योग स्थापित कर प्राथमिकताएं तय करने की जरूरत है, ताकि कोयला समेत खनिज संपदा का उपयोग किया जा सके। नीति लागू करते समय ऐसी व्यवस्था की जाए कि इन खनिजों की रॉयल्टी विदर्भ को मिले। यदि यह विदर्भ की सारी संपत्ति है, तो इस आय का पूरा उपयोग विदर्भ के लिए किया जाना चाहिए। खनिज व्यवसाय से जुड़े मजदूरों, छोटे व्यापारियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं लागू की जाएं। खनिजों के विकास के लिए उपयुक्त अनुसंधान संस्थान बनाये जाने चाहिए। इसके लिए विदर्भ के कॉलेजों में भूविज्ञान और उसके शोध को शुरू किया जाना चाहिए। इन खनिजों पर प्रसंस्करण उद्योग विदर्भ में स्थापित किए जाने चाहिए, प्राथमिक प्रसंस्करण विदर्भ में किया जाना चाहिए और रोजगार सृजन को बढ़ावा देने पर जोर दिया जाना चाहिए। हालाँकि, ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि दिल्ली की केंद्र सरकार महाराष्ट्र सरकार की मदद से अपने विदर्भ की इस खनिज संपदा पर अपना आधिपत्य चाहती है। इस धन को पहुंचाने के लिए इस ‘समृद्धि राजमार्ग’ को जबरन विदर्भ की राजधानी से जेएनपीटी पोर्ट तक ले जाया गया है और दूसरे को गोवा ले जाया जाना है। निःसंदेह, हमारा अपनी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं है। अगर कोई यह भी कहे कि हमारी ‘स्वतंत्र विदर्भ राज्य’ की मांग ग़लत है, तो उसके मुँह पर कालिख क्यों न मारी जाए..!
विदर्भ में भूमिगत कोयला, उस पर आधारित थर्मल पावर प्लांट, उससे बनने वाली बिजली, उसके लिए आवश्यक पानी को ध्यान में रखें, तो आज 6400 मेगावाट यूनिट बिजली पैदा होती है. औद्योगिक विकास को पूरा करने के लिए विदर्भ की मांग अधिकतम 2200 यूनिट और 1100 यूनिट होने पर 3000 मेगावाट यूनिट बिजली बचती है। ऐसे में विदर्भ के लोगों को 2.5 रुपए प्रति यूनिट वाली बिजली विभिन्न टैक्स चुकाकर 11 से 20 रुपए की दर से खरीदनी पड़ रही है।
फिलहाल विदर्भ में पैदा होने वाली 6 हजार 300 मेगावाट बिजली में से विदर्भ को सिर्फ 2200 यूनिट बिजली ही मिलती है और अगर विदर्भ में कृषि पंपों को 58 फीसदी बिजली मुफ्त दे दी जाए, तो भी विदर्भ को सिर्फ 1100 मेगावाट बिजली की जरूरत पड़ेगी। 6 हजार 300 मेगावाट में से 2200 + 1100 में से 3300 मेगावाट घटाकर शेष 3000 मेगावाट बिजली 11.50 रुपए की दर से बेचने पर भी विदर्भ को एक साल में बिजली से 38 हजार 500 करोड़ रुपए मिलेंगे। हालांकि, ऐसा होता नहीं है।
यानी, अगर आप खेती का सत्यानाश करके विदर्भ में ‘समृद्धि महामार्ग’ बनाते हैं, यहां के खनिज संसाधनों का उपयोग करते हैं, यहां की बिजली का उपयोग करते हैं और विदर्भ को क्या मिलता है? बिजली दरें बढ़ाना, खनिज संसाधन की रॉयल्टी नहीं देना, हर दिन 14-15 किसानों की आत्महत्या, सिंचाई में 60,000 करोड़ रुपये का बैकलॉग और सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, उद्योग, ग्रामीण विकास आदि में 15,000 करोड़ मिलाकर कुल 75,000 करोड़ रुपये का बैकलॉग है। उसमें भी कुपोषण, शिशु मृत्यु दर, बेरोजगारी, नौकरियों के लिए पलायन…..
फिलहाल नागपुर में शीतकालीन सत्र चल रहा है। पहले यही शीत-सत्र छह सप्ताह तक चलता था। विदर्भ बंद की सलामी के साथ सरकार का स्वागत किया होता था। भाई जाम्बुवंतराव धोटे के नेतृत्व में लाखों-लाख लोग विधानसभा पर मार्च करते थे। पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प होती थी। लाठीमार, आंसू गैस के पाइप फूटते थे। लेकिन धीरे-धीरे विदर्भ आंदोलन ठंडा पड़ता गया और रोमांच ख़त्म हो गया। वैसे मोर्चे व जुलूस आज भी निकलते हैं; लेकिन इसमें उस रोमांच की कमी होती है। पहले विधायक बस से नागपुर आते थे। आज किसी विधायक को बस में देख लें तो खबर बन जाएगी! सरकार ने विधायकों के लिए विधायक आवास बनाया है। लेकिन वहां कुछ ही विधायक रहते नजर आएंगे। ज्यादातर विधायक फाइव स्टार होटलों में रुकते हैं। यह एक अजीब स्थिति है। इसे ‘कलाय तस्मै नमः’ कह सकते हैं!
अब रहा सवाल विदर्भ का, तो शासक मुंबई में बैठकर विदर्भ के लिए योजनाएं नहीं बना सकते या पक्षपातपूर्ण नीति लागू नहीं की जा सकती। जब तक सरकार नागपुर में बैठकर योजना नहीं बनाएगी और विदर्भ के लोगों को पास की राजधानी नहीं मिलेगी, तब तक विदर्भ का उद्धार नहीं होगा। कभी समृद्धशाली रहा विदर्भ संयुक्त महाराष्ट्र में शामिल होने के बाद आर्थिक रूप से कमजोर हो गया है। यह राज्य सरकार की विदर्भ विरोधी नीतियों के कारण हुआ है। जहां पश्चिमी महाराष्ट्र में गन्ना बोने पर सरकार भुगतान करती है, वहीं विदर्भ में कपास के उत्पादन के बाद भी कीमत नहीं मिलती। कपड़ा मिलें, सूत मिलें बंद हैं। नासिक में विदेशों से अंगूर के पौधे लाये जाते हैं और वहां वाइनरी स्थापित की जाती है। इसके विपरीत, विदर्भ में संतरा और संतरा प्रसंस्करण उद्योग बंद किये जाते हैं। यह तथ्य बताता है कि महाराष्ट्र में रहकर विदर्भ का विकास संभव नहीं है।
1958 में हुए नागपुर करार में विदर्भ को उसकी जनसंख्या के अनुपात में धन, रोजगार और शिक्षा में हिस्सा देने का स्पष्ट उल्लेख है। विदर्भ की जनसंख्या महाराष्ट्र की तुलना में 22 प्रतिशत है। इस हिसाब से सालाना बजट में विदर्भ को 22 फीसदी फंड मिलना चाहिए। करार के वर्ष के बाद से विदर्भ को यह कभी नहीं मिला है। इसलिए यहां के बाजारों में पैसा नहीं है। उद्योग-धंधे नहीं बढ़े। स्वतंत्र राज्य के निर्माण के लिए आज तक कोई आर्थिक मानदंड नहीं लगाया गया, फिर स्वतंत्र विदर्भ के लिए इसे क्यों थोपा जा रहा है? हरियाणा, हिमाचल, झारखंड, छत्तीसगढ़ के अलावा इससे पहले मद्रास राज्य से लेकर चार राज्यों के गठन के दौरान भी यह मानदंड नहीं था। विदर्भ के बैकलॉग को दूर करने की दृष्टि से दांडेकर समिति को बाहर रखकर 1980 में एक रिपोर्ट तैयार की गई थी। 1990 में बैकलॉग फिर बढ़ गया। बाद में गठित समिति की रिपोर्ट विदर्भ के पक्ष में थी। उसके बाद भी राज्य सरकार ने सभी विभागों से पूछते हुए दो साल लगा दिये। बाद में विदर्भ वैधानिक विकास बोर्ड का गठन किया गया। वर्ष 2001 की शुरुआत चर्चाओं, रिपोर्टों और समितियों में हुई। इस बीच बैकलॉग बढ़ गया, जो आज और बढ़ गया है। विदर्भ पर कोई ध्यान नहीं देता, क्योंकि यहां नेता और नौकरशाह भी पश्चिमी महाराष्ट्र और राज्य के बाहर से हैं। वे विदर्भ से कोई लेना-देना नहीं चाहते। विदर्भ के दम पर हर राजनीतिक दल ने राज्य में सत्ता का आनंद उठाया है। पहले कांग्रेस सत्ता में थी, अब बीजेपी सत्ता में है। स्थिति वैसी ही है। इसलिए अब विदर्भ राज्य को अलग करने की जरूरत है, लेकिन ऐसा होगा या नहीं यह शासकों की इच्छा से नहीं, बल्कि जनदबाव द्वारा ही तय किया जाएगा।
मैं उन लोगों से अपील करता हूं, जो जानते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी हमें भविष्य में जवाब पूछेगी कि विदर्भ इतना भ्रष्ट और कंगाल क्यों हो गया है? और जिनके पास “जीना यहां… मरना यहां” के अलावा कोई विकल्प नहीं है, वे अपना तन-मन और धन इस आंदोलन में झोंक दें…..
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लेखक- प्रकाश पोहरे
(संपादक- दैनिक देशोन्नति, दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
संपर्क: 98225 93921
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