जून 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। पहले सत्र के लिए संसद जाते समय उन्होंने संसद भवन की सीढ़ियों पर अपना सिर रखा और भावनात्मक उद्घोष किया कि वह एक लोकतांत्रिक मंदिर में प्रवेश कर रहे हैं। इस घटना को साढ़े नौ साल बीत चुके हैं। उनका लक्ष्य खुद को एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में चित्रित करना था, जो संसद की पवित्रता को बरकरार रखता है। लेकिन दुर्भाग्य से बाद के दौर में वह छवि टूट गयी। केवल बहुमत के बल पर संसद पर आधिपत्य जमाकर उन्होंने संसदीय व्यवस्था को सत्तावादी व्यवस्था में बदल दिया है। पिछले छह वर्षों में घटी घटनाओं से यह बात कई बार साबित हो चुकी है।
केंद्र सरकार और सत्ताधारी पार्टी व उसके अनुषांगिक संगठनों का उपद्रव इस हद तक बढ़ गया है कि व्यापक भावना है कि देश में ‘अघोषित आपातकाल’ लागू है। इसके कुछ लक्षण हैं, जो स्पष्ट रूप से पहचाने जा सकते हैं। वातावरण में जहर घोला जा रहा है। जातियों और धर्मों के बीच आपसी अविश्वास और ‘भय’ का माहौल पैदा करने की जानबूझ कर कोशिश की जा रही है। जनता के बुनियादी मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए सरकारी स्तर पर यह प्रयास किया जा रहा है।
सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा संस्थागत ढांचे को कमजोर करना है। अभी हमारी आँखों के सामने क्या है? तो कैबिनेट और राष्ट्रपति भवन, नाममात्र का है या नहीं? इसमें संदेह है कि सभी विभागों का प्रबंधन प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा किया जा रहा है। अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करना और न्यायपालिका पर अदृश्य पकड़ बनाना। चुनाव आयोग संदेह के घेरे में है। उच्च शिक्षा के प्रमुख केंद्रों में दूसरे दर्जे के लोगों को प्रमुख बनाना और पाठ्यक्रम के जरिये इतिहास में हेरफेर करना। इस बात पर भरोसा नहीं हो रहा कि मीडिया बिना दबाव के काम कर सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन पर किसी न किसी तरह से नियंत्रण लगाया जा रहा है। बिना दबाव या प्रलोभन के काम करना और स्वायत्तता बनाए रखते हुए आविष्कार की स्वतंत्रता को बनाए रखना कठिन हो जाता है।
गौरतलब है कि बीजेपी ने सितंबर 2013 में मोदी की उम्मीदवारी की घोषणा की। तभी से मीडिया पर इस तरह का दबाव चल रहा है। उन्होंने साम, दाम, दण्ड, भेद का प्रयोग कर मीडिया को अपनी कहानी तक लाने का राष्ट्रीय स्तर पर सफल प्रयोग किया। उन्होंने लाचार मीडिया और उद्योगपतियों के साथ सांठगांठ करके और चुनाव आयोग को मैनेज करके 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ-साथ इन साढ़े नौ वर्षों में हुए अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव भी लड़े और जीते। बीजेपी ने बड़े-बड़े इलेक्ट्रॉनिक मीडिया घरानों को बड़े-बड़े विज्ञापन दिए और मीडिया ने बीजेपी को खूब प्रचार दिया। इनका लेन-देन साफ़ था!
विचार और अभिव्यक्ति का विशेष आनंद लेने वाले तत्व हमेशा बेचैन रहते हैं। वास्तव में उन्हें ऐसा होना भी चाहिए, लेकिन जब बेचैनी इतनी बढ़ जाती है कि फूटने लगती है, तो जो भाप बनी है, वह निकलने के बजाय फंसी हुई महसूस होती रहती है। इससे भी बड़ी बात यह है कि एक-एक करके सामाजिक तत्व धीरे-धीरे सड़क पर आते जा रहे हैं। आम लोगों में यह कहते हुए असंतोष बढ़ रहा है कि महंगाई बढ़ रही है। उद्योग और व्यापार क्षेत्र में यह भावना प्रबल हो रही है कि सरकारी नीतियों का शीशा बहुत संकीर्ण होता जा रहा है। कृषक वर्ग हमेशा कष्ट सहने का आदी है, लेकिन अब वह भी सहने लगा है। ऐसा लगता है कि सरकार इस समस्या पर ध्यान नहीं दे रही है, श्रमिक वर्ग हमेशा आंशिक रूप से संतुष्ट रहता है। उन्हें रहना तो है, लेकिन उनके रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं। इन सबके परिणामस्वरूप, अर्थशास्त्री भविष्यवाणी कर रहे होंगे कि ‘अर्थव्यवस्था गिर रही है’। विदेशी क्षेत्र के विशेषज्ञों को संकेत मिल रहे हैं कि ‘हमारी अंतरराष्ट्रीय साख घट रही है।’ ये सभी मामले निश्चित तौर पर किसी को भी गंभीरता से सोचने पर मजबूर कर देंगे। कल की खबर है कि भारत पर कर्ज का बोझ बढ़ गया है और देश पर कुल 205 लाख करोड़ का कर्ज है। वैश्विक संगठनों ने भारत को सावधान रहने की चेतावनी दी है, लेकिन सरकार इस पर भी ध्यान नहीं दे रही है।
जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, सरकार और अधिक आक्रामक होती नजर आ रही है. जिस क्रूर तरीके से 146 सांसदों को निलंबित किया जा रहा है और विपक्ष की आवाज को दबाया जा रहा है, उससे कम से कम यही तो कहा जा सकता है। भारतीय संसदीय इतिहास में सोमवार और मंगलवार दो काले दिन के रूप में दर्ज किये जायेंगे। इन दो-तीन दिनों में विपक्षी दलों के लगभग 150 सांसदों को निलंबित कर दिया गया है। 13 दिसंबर को दो युवक लोकसभा में घुसे और अपनी मांगें या शिकायतें रखने की कोशिश की। फिर उन्होंने धुएं के पाइप छोड़ दिए। अभी तक की जांच में यह बात सामने नहीं आई है कि इन युवकों का संबंध किसी हथियारबंद या देश विरोधी संगठन से है। सौभाग्य से वो मुसलमान नहीं थे, अगर होते, तो बापरे…! बीजेपी ने आसमान सिर पर उठाकर इतना कुछ किया होता, जिसकी कल्पना करने से ही शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं!
यदि उन सेंधमार युवकों के पास घातक हथियार होते और उन्होंने कम से कम कुछ हिंसा का प्रयास किया होता, तो स्थिति अलग होती। हालांकि इस घटना से मोदी सरकार की सुरक्षा व्यवस्था की किरकिरी जरूर हुई। इसे वसूलने के लिए अब विरोधियों पर निशाना साधा जा रहा है। एक तरफ इस बात का परीक्षण किया जा रहा है कि क्या इन युवाओं को नक्सली की श्रेणी में रखा जा सकता है, दूसरी तरफ सुरक्षा व्यवस्था में ढिलाई का मुद्दा उठाने वाले विपक्ष को निलंबित कर उनकी आवाज को दबाने की कोशिश भी की जा रही है। यह मांग बिल्कुल भी अनुचित नहीं थी कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को इस मामले में बयान देना चाहिए। लेकिन उसे भी नहीं माना गया और भ्रम का फायदा उठाकर सांसदों को थोक में निलंबित कर दिया गया। ऐसे समय में इंदिरा गांधी की इमरजेंसी की याद जरूर आती है। कम से कम यह उस समय स्पष्ट रूप से चल रहा था। लेकिन अब आपातकाल की वास्तविक घोषणा के बिना ही दमन जारी है। संसद में जो कुछ भी कहा जाता है वह मिनटों में दर्ज होता है। विरोधियों के भाषणों और उनके द्वारा पूछे गए सवालों से एक लिखित इतिहास बनता है। मोदी सरकार यह सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही है कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए ऐसा कोई सबूत या इतिहास उपलब्ध न हो। अतीत में ऐसे मामले सामने आए हैं जब विपक्षी नेता बोल रहे थे, उनके माइक्रोफोन बंद कर दिए गए, उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों को मिनटों में नहीं लिया गया। अब उनका गला घोंट दिया गया है।
जाहिर है आज देश में मोदी सरकार के लिए काफी अनुकूल माहौल है। हाल के चुनावों में बीजेपी को बड़ी सफलता मिली है। मोदी और बीजेपी को भरोसा है कि आने वाले चुनाव में भी उन्हें ऐसी ही सफलता मिलेगी। 2019 में बीजेपी को पहले से ज्यादा यानी 303 सीटें मिलीं। उस समय कांग्रेस को केवल 52 सीटें मिलीं और चूंकि यह कुल सीटों का दस प्रतिशत भी नहीं थीं, इसलिए विपक्ष के नेता का पद पाने में भी मारामारी मची रही। कांग्रेस के साथ वाली पार्टियों को 91 सीटें और अन्य पार्टियों को 98 सीटें मिलीं। बीजेपी गठबंधन और कांग्रेस समेत विपक्ष के बीच करीब दो सौ सीटों का अंतर था। लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष की आवाज़ पहले से ही कमज़ोर थी। यह व्यवस्था की गई कि विपक्षी नेता भले ही कुछ न बोलें, लेकिन उन्हें मीडिया से कोई प्रचार नहीं मिलेगा। लेकिन आज के हालात से साफ है कि मोदी सरकार के लिए ये भी काफी नहीं है। सत्तावादी शासक सदैव भय के साये में रहते हैं। उन्हें डर है कि कोई उन्हें मार डालेगा। मोदी की सत्ता का यही हाल हो गया है। विपक्ष की ताकत भले ही कम है, लेकिन मोदी को साफ पता है कि कल विपक्ष उनकी ताकत का ग्रास बन सकता है। इसीलिए वे विरोध की किसी भी आवाज को बर्दाश्त करने में असमर्थ हो गए हैं। इतिहास गवाह है कि इस प्रकार के अधिनायकवादी, आत्ममुग्ध लेकिन भय फैलाने वाले शासकों का अंत बहुत बुरा होता है। लेकिन वर्तमान में भाजपा शासकों का मानना है कि हम अमरपट्टा लेकर पैदा हुए हैं। एक तरफ ईडी, सीबीआई और अन्य हथकंडे अपनाकर विपक्ष को खत्म करना, जरूरत पड़ने पर उनकी पार्टी को तोड़ना, उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना और फिर उन्हें अपने पाले में लेकर उन्हें यह समझाना कि वे कितने लोकप्रिय हैं, यह बीजेपी की सोच का आधार है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अब सही समय पर जनता इस बुनियाद को निश्चित ही उखाड़ फेंकेगी।
यह कोई संयोग नहीं था कि यह सब उसी समय हुआ, जब ‘इंडिया’ अलायंस के नेताओं की दिल्ली में बैठक होने वाली थी। इससे पहले इंडिया अलायंस की पटना, बेंगलुरु, मुंबई आदि जगहों पर हुई बैठकों के दौरान इससे ध्यान भटकाने के लिए कुछ झूठी चर्चाएं भी हुई थीं।
उदाहरण के तौर पर ऐसी ही एक बैठक में देश में सभी चुनाव एक साथ कराने का प्रस्ताव पेश किया गया और सारी चर्चा वहीं मोड़ दी गयी। मुंबई में बैठक के दिन ही अंतरवाली सराटी गांव में मराठा प्रदर्शनकारियों पर लाठियां बरसाई गईं और राजनीति पूरी तरह से पलट गई। इसलिए हम इस संभावना से इनकार नहीं कर सकते कि इंडिया अलायंस की बैठक और इस थोक निलंबन के बीच कोई संबंध है। मोदी सरकार अहम मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए लगातार ऐसी बातें कर रही है। पहले यह व्यवस्था की गई थी कि अडानी मामले पर आवाज उठाने पर पहले राहुल गांधी और फिर महुआ मोइत्रा के सांसदों की सदस्यता रद्द कर दी जाएगी। मोदी लगातार ये दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वो विपक्ष को कोई भाव नहीं देना चाहते। चूँकि इस तरह से संसद की पवित्रता नष्ट हो गई है, आज की संसद अब संवैधानिक कानून बनाने वाली संस्था नहीं रह गई है, बल्कि कैबिनेट का रजिस्ट्री कार्यालय, वैकल्पिक रूप से कार्यपालिका बन गई है। 2016 में मोदी सरकार का नोटबंदी का फैसला, तीन तलाक के खिलाफ कानून, नागरिकता संशोधन विधेयक और कृषि सुधार विधेयक के साथ-साथ जिस तरह से मौजूदा शीतकालीन सत्र में तीन आपराधिक संहिता विधेयक पारित किए गए, वे इसके अच्छे उदाहरण हैं। इसलिए बिना किसी अपराधबोध के ऐसी तानाशाही का विरोध करना चाहिए, चाहे वह किसी भी रंग की हो….! केवल संप्रभु जनता ही शासकों के तानाशाही की ओर बढ़ते कदमों को रोक सकती है!
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लेखक- प्रकाश पोहरे
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