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ग्रामीण अर्थव्यवस्था और जीडीपी की भूलभुलैया

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

2024 की पहली छमाही में महाराष्ट्र में 12670 किसानों ने अपनी जान दे दी है। पश्चिम विदर्भ में सबसे अधिक 557 आत्महत्याएँ दर्ज की गईं। इनमें सबसे ज्यादा 170 आत्महत्याएं अमरावती जिले में हुई हैं। 2001 से अब तक अमरावती संभाग में 20 हजार 630 किसानों ने आत्महत्या की है। आज विदर्भ में प्रतिदिन 12 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। पिछले छह महीनों में संभाजीनगर मंडल में 430, नासिक में 137, नागपुर में 130 और पुणे जिले में 13 किसानों ने मौत को गले लगाया है।

पिछले साल राज्य में 28,510 किसानों ने लगातार आपदाओं से हताश होकर आत्महत्या की। 2022 में 29,420 से ज्यादा कर्जदार किसानों ने अपनी जान दे दी। इससे पहले 2021 में यही संख्या 27430 थी। देश में पिछले साल 1 लाख 12 हजार किसानों ने आत्महत्या की। ये हृदय विदारक संख्याएं संकट की गंभीर तस्वीर पेश करती हैं।

किसानों को अपनी उपज बेचने की सुविधा देने के लिए कृषि उपज बाज़ार समितियाँ बनाई जाती हैं। किसानों के बीच से ही राजनीतिक नेता व्यापारियों और दलालों के साथ बाज़ार समितियों के अध्यक्ष बन जाते हैं, जिन्हें ‘आढ़तिया’ (दलाल) कहा जाता है। जैसे ही कोई किसान बाजार समिति में कदम रखता है, वह इन शक्तिशाली दलालों और नेताओं के हाथों की कठपुतली बन जाता है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘एक दाने से संपूर्ण चावल का परीक्षण होता है, उसी तरह सभी देशों में यही स्थिति होगी! तो सकल घरेलू उत्पादन यानि – जीडीपी ( ‘स’कल ‘रा’ष्ट्रीय ‘उ’त्पन्न यानि – ‘सराउ’) में कृषि, किसान और ग्रामीण आबादी की स्थिति क्या है?

बारीकी से विचार करने पर, जीडीपी यानी ‘सराउ’ की वृद्धि पूरी तरह से उत्पादन की वृद्धि से प्रेरित होती है, …?भले ही व्यय बढ़ता है…., इसलिए तथाकथित जीडीपी या ‘सराउवाद’ सतत विकास, आर्थिक समानता और समावेशन पर जोर नहीं देता है। इसलिए जितना हम इस ‘जीडीपीवाद’ पर जोर देंगे, हमारा नुकसान उतना ही बढ़ेगा। यानी हम कृषि में आय उत्पन्न करने के लिए बीज, उर्वरक, कीटनाशक, ड्रिप और प्रौद्योगिकी आदि पर जितना अधिक खर्च करेंगे, उतना ही उन इनपुटों का उत्पादन करने वालों का लाभ बढ़ेगा, लेकिन किसानों को लाभ यानी ‘आय’ कम होगीं

हमारी 50 प्रतिशत से अधिक आबादी अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, और इसी में इसका उत्तर छिपा है कि इन लोगों में गरीबी दर इतनी अधिक क्यों है? ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश लोग कृषि या इसी तरह के क्षेत्रों पर निर्भर हैं, यदि वे अपना विकास करना चाहते हैं, तो केवल तभी जब उनकी वित्तीय क्षमता को एक निश्चित स्तर पर लाया जाएगा, वे अपनी आजीविका पर खर्च करने में सक्षम होंगे और साथ ही अपने परिवार के स्वास्थ्य को भी बनाए रखेंगे. बचे हुए पैसों से अपने बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिलाएं।

यानी कृषि सुधार तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक कृषि उपज को उत्पादन लागत यानी सी2+50प्रश के आधार पर उचित मूल्य नहीं मिल जाता!

ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना कृषि विकास के लिए आवश्यक है, लेकिन इसके लिए सरकार को अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा कृषि क्षेत्र में निवेश पर खर्च करना होगा, लेकिन मुद्रास्फीति संकट पैदा होने के डर से इस खर्च से बचा जाता है, और बाजार में माल की कमी न हो इसके लिए आयात-निर्यात नीति को लेकर ‘किसान विरोधी’ फैसले लिए जाते हैं।

प्याज की कीमत बढ़ते ही इस पर निर्यात प्रतिबंध लगा दिया जाता है। खाद्य तेल के आयात पर शुल्क कम करने से तिलहन की कीमतें कम हो गई हैं, क्योंकि सरकार को तिलहन की कीमतों से नहीं बल्कि खाद्य तेल की महंगाई से चिंता है। इसका मतलब है कि आम लोगों की नाराजगी से बचने के लिए किसानों की नाराजगी झेलनी पड़ती है और अगर वह आत्महत्या भी कर ले तो भी सरकार ऐसा कर पाती है। भले ही कपास, गेहूं, चावल, अन्य दालों के उत्पादन में गिरावट की संभावना हो, सरकार तुरंत इन वस्तुओं पर निर्यात प्रतिबंध लगा देती है।

कृषि वस्तुओं की गिरती कीमतें किसानों की गरीबी को काफी हद तक बढ़ा देती हैं, लेकिन सरकार और सरकार को प्रभावित करने वाले कॉर्पोरेट जगत शहरी मुद्रास्फीति की समस्या को ग्रामीण गरीबी की तुलना में अधिक गंभीर मानते हैं, क्योंकि शहरी लोग जो पैसा बचाते हैं, उसे वे खाने-पीने पर खर्च करते हैं, कंपनियों द्वारा उत्पादित विलासिता की वस्तुओं पर उनका प्रत्यक्ष कोष है।

कृषि क्षेत्र के प्रति सरकार की उदासीनता के कारण कुल ‘जीडीपी’ में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी और ग्रामीण आबादी का प्रति व्यक्ति ‘मुनाफ़ा यानी आय’ पिछले कई वर्षों से लगातार घट रही है। 1990-91 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 35 प्रतिशत था। वह हिस्सेदारी 2023-24 तक घटकर 15 प्रतिशत हो गई है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि जीडीपी वृद्धि उनका केंद्रीय उद्देश्य है।

यह समझना जरूरी है कि खेती में खर्च बढ़ने से खेती में आमदनी यानी मुनाफा कम हो गया है, इसीलिए ग्रामीण इलाकों से आरक्षण आंदोलन उठ रहे हैं, जो मानते हैं कि खेती अच्छी और नौकरियां घटिया होती हैं….!

2022 में, महाराष्ट्र राज्य में 2703 बंजर गाँव दर्ज किए गए थे, जिनमें से 2300 गाँव अकेले विदर्भ में थे। 2023 में एक ही वर्ष में यह संख्या 700 बढ़ गई और अब यह 3000 तक पहुँच गई है। इसी से पता चलता है कि कृषि और विदर्भ की अवस्था कितनी खस्ता होती जा रही है।

सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के कारण आम लोगों को संतुष्टि होती है कि उनका देश आर्थिक रूप से विकास कर रहा है। इस आर्थिक विकास से बढ़ी हुई आय का बहुत कम हिस्सा गरीबों तक पहुंचता है। लेकिन उच्च वर्गों की आय की तुलना में यह प्रवाह नगण्य है। अत: आर्थिक विषमता अत्यधिक बढ़ जाती है। इस असमानता के कारण, उत्पीड़ितों द्वारा साझा की जाने वाली अल्प आय उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं करती है। इससे इन गरीबों में शुरुआती असंतोष और बाद में मध्यम वर्ग के खिलाफ नाराजगी पैदा हो सकती है। लेकिन यह भी देखना जरूरी है कि आर्थिक रूप से समृद्ध दिखने वाला मध्यम वर्ग क्या वाकई खुश है! क्योंकि उन्हें अब इस बात की जानकारी नहीं है कि उनकी सच्ची खुशी किसमें शामिल है।

जीडीपी वृद्धि की वर्तमान अंधी दौड़ जो लोगों के आर्थिक विकास के नाम पर अत्यधिक असमानता पैदा करती है, पूरी तरह से भ्रामक है। इस आर्थिक विकास का लाभ सभी समाज को मिले, इसके लिए उत्पादन के बजाय आय में वृद्धि का लक्ष्य रखना बहुत जरूरी है। लेकिन प्रचलित ‘जीडीपीवाद’ में ऐसे विचार रखने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि किसी भी तरह से उत्पादन बढ़ाना ही ‘जीडीपीवाद’ के मूल में है।

मध्यम और उच्चमध्यम वर्ग इन बढ़ते उत्पादों की अत्यधिक और अनावश्यक खरीदारी कर रहे हैं। जीडीपी बहस के समर्थक अच्छी तरह जानते हैं कि ‘जीडीपीवादी’ सोच का भविष्य ऐसी भव्य खरीद पर निर्भर करता है। इसलिए, वे अलग-अलग तरीकों से ऐसी खरीदारी को प्रोत्साहित करते हैं।

मध्यम वर्ग इस गलत धारणा से दबा हुआ है कि उसकी गरिमा और खुशी महँगी विलासिता में निहित है। लेकिन ऐसी झूठी प्रतिष्ठा उन्हें खुश नहीं कर पाती। इसलिए, यदि केवल विवेकहीन उत्पादन वृद्धि को केंद्र में रखा जाता है, तो ‘जीडीपीवाद’ से समाज की समग्र खुशहाली बढ़ने की संभावना नहीं है, और जिस दिन से किसानों और शासकों को यह एहसास होगा कि उत्पादन महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि आय महत्वपूर्ण है, उसी दिन से किसान आत्महत्या की घटनाओं में कमी आती जाएगी।

लेखक : प्रकाश पोहरे
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