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एक मशहूर कहानी है। राजा का प्रिय तोता पिंजरे में मर गया। दरबारी भयभीत हो गये। दरबारियों के सामने यह प्रश्न आया कि राजा को कैसे बताया जाए कि तोता मर गया है। उन्हें डर था कि अगर राजा उस खबर से परेशान हो गये, तो सीधे उनका सिर कलम कर देंगे। बीरबल जैसा बुद्धिमान दरबारी राजा के पास जाता है और कहता है, “महाराज, आपके पिंजरे का तोता निस्तेज हो गया है। वह बिल्कुल भी नहीं हिलता। उसकी आंखें खुली हुई हैं। आसमान की ओर देख रहा है। अनाज डालने पर भी कोई हलचल नहीं हो रही है। तोता पूरी तरह से निश्चल है.।लेकिन राजा को कोई स्पष्ट नहीं बताता कि तोता मर गया है।
लोकतंत्र में मतदाता ही राजा है! फिर कौन शासक, नौकरशाह उन्हें नाराज करेगा? तोता मर गया है, वह सच कैसे बता सकता है?
लोकतंत्र में लोगों की मांगें या अपेक्षाएं तोते की तरह होती हैं। लोगों की मांगें मतदाताओं का प्रिय तोता है। कौन कह सकता है कि उसकी कोई भी मांग पूरी नहीं हो सकती या असंभव है? वोटर राजा सिर फोड़ देगा तो? इसके बदले ऐसे नेता जुबानी कसरत शुरू कर देते हैं। वे सत्य का रोना रोते हुए अपना रास्ता खोज लेते हैं। मराठा आरक्षण का ज्वलंत मुद्दा उससे रत्ती भर भी अलग नहीं है। पिछले तीन-चार दशकों में वैश्वीकरण, निजीकरण, खुली अर्थव्यवस्था के कारण राज्य या केंद्र सरकार की नौकरियों में कोई रिक्तियां नहीं बची हैं और जो हैं, उनकी पेंशन पहले ही बंद कर दी गई है, और कई विभाग ऐसे भी हैं जो बिल-भुगतान या वेतन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अब सिर्फ संविदा (ठेका पद्धति) के आधार पर भर्ती की जाएगी और वह भी निजी कंपनियों के जरिए 11 महीने के बांड पर! इस सच्चाई को कोई समझने को तैयार नहीं है।
सभी दलों के राजनेता किसी भी घटना का केवल राजनीतिकरण करते हैं, सरकार और विपक्ष हमेशा जनता के दबाव में आकर लोगों को गुमराह करते हैं। यह एक बार में समझ में आता है, लेकिन मीडिया सच बताने से दूर भागता है, यह बहुत गंभीर और चिंताजनक है।
17 सितंबर 2023 को मैंने इसी विषय पर ‘प्रहार’ लिखा था. उसका शीर्षक था- ‘समाप्त हो चुकी सरकारी नौकरियों के लिए आरक्षण!’ उससे समग्र स्थिति का पता चल सकेगा। मराठा समुदाय की आरक्षण की मांग एक बार फिर उग्र होती जा रही है। इस मांग ने फड़नवीस युग के दौरान कुल 60 मराठा क्रांति मार्च से लेकर अब जरांगे पाटिल के आमरण अनशन तक का सफर तय किया है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए स्पष्ट रूप से ना कहना बेहतर होगा, बजाय यह कहने के कि मराठों की मांग स्वीकार होने की संभावना कम है। यदि मराठों को आरक्षण देना है, तो भारत की सभी ‘प्रमुख जातियों’ को आरक्षण देना होगा. जैसे गुजरात में पटेल, राजस्थान में गुज्जर, पंजाब-हरियाणा में जाट, उत्तर भारत में राजपूत और ठाकुर, दक्षिण भारत में वोक्कालिगा और लिंगायत। राज्य सरकारों के पास आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ाने की शक्ति नहीं है। यही कारण है कि देश के अन्य हिस्सों के जाटों और कई अन्य लोगों को अभी तक आरक्षण नहीं दिया गया है। यह बार-बार साबित हो चुका है कि अगर इसमें कुछ खामियां पाई जाती हैं, तो वे सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं पातीं। महाराष्ट्र में ‘ईडब्ल्यूएस’ का मतलब ‘आर्थिक रूप से’ पिछड़ा है और ‘एसईबीसी’ का अनुभव मराठों ने भी किया है।
महाराष्ट्र में मराठा या कुनबी दो अलग-अलग समुदाय नहीं हैं। इनके आपसी रिश्ते भी बहुत पुराने हैं और यह समुदाय लगभग 30 प्रतिशत है। इतना प्रतिशत देश के किसी भी राज्य में किसी ‘प्रमुख जाति’ का नहीं है। यानी महाराष्ट्र में मराठों और कुनबे के पास लाखों हाथियों की ताकत है। इसलिए, न तो शासक और न ही बुद्धिजीवी-छात्र खुलकर उनके ख़िलाफ़ खड़े हो पाते हैं। और मराठों/कुनबियों के पास एक भी ऐसा शिक्षाविद, विचारक और नैतिक वजन, दूरदर्शिता वाला नेता नहीं है, जो उन्हें स्पष्ट रूप से बता सके कि आपकी खेती, आपके बच्चों की शिक्षा की समस्याएँ बहुत बड़ी हैं, लेकिन आरक्षण एकमात्र विकल्प नहीं हो सकता। और अब जब सरकारी उद्यम बेचे गए, पेंशन बंद कर दी गई, अनुबंध भर्ती कानून पारित किए गए; तो चाहे आप ‘कुनबी’ के रूप में जाति-प्रमाणपत्र प्राप्त कर लें और कानून बनाकर अलग से आरक्षण प्राप्त कर लें, आप कुछ भी कर लें, आपकी बुनियादी समस्याएं हल नहीं हो सकतीं!
यह सच है कि शिक्षा महँगी हो गई है और चाहे कोई इसे पाने की कितनी भी कोशिश कर ले, क्योंकि शासकों ने देश को डुबो दिया है, नौकरियाँ नहीं हैं, क्योंकि उद्योग नहीं हैं। शिक्षित बेरोजगारों की एक बड़ी फौज मराठा/कुनबी समुदाय में पाई जाती है, जो मुस्लिम और ब्राह्मण जातियों में नहीं पाई जाती है, क्योंकि अधिकांश मुस्लिम व्यसनों से मुक्त हैं और अधिकांश लोग निर्माण, पंचर, फैब्रिकेशन, सब्जी और फल बेचना, लघु व्यवसाय, खाद्य पदार्थ बिक्री, कुली, परिवहन आदि कामों में लगे हुए हैं। वे अपने शारीरिक श्रम के काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाते और कोई राजनीतिक पार्टी के झंडे और लाठियों और जिंदाबाद/मुर्दाबाद के लिए भी नहीं जाते। जहाँ तक ब्राह्मणों की बात है, वे 10 दिवसीय गणपति, नवदुर्गा या तेरहवीं का पालन नहीं करते और वे संघ की शाखाओं को छोड़कर झंडे, डंडे, जुलूस में भी अपना समय नहीं बिताते।
ऐसे में आरक्षण से मिलने वाली बेहद नगण्य ‘आरक्षित सीटों’ से बहुसंख्यक मराठों को कितना फायदा होगा? और इन समस्याओं का समाधान कैसे हो? इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इसलिए, उपरोक्त पटेलों, गुज्जरों, जाटों, राजपूतों और ठाकुरों, वोक्कालिगा और लिंगायतों या किसी अन्य समुदाय के लिए ‘आरक्षण’ एक मृगतृष्णा जैसा हो रहा है..!
जब से बीजेपी राजनीति में आई है, लगातार हिंदू-मुसलमान, राम मंदिर, दंगे, पाकिस्तान, हिंसा, हालिया घटित ‘सर्जिकल स्ट्राइक’, जोडी का ‘समान नागरिक कानून’ और अब महिला आरक्षण, हम ऐसे विषयों पर ही बैठकर जुगाली करते रहे हैं। इन्हीं मुद्दों के दम पर बीजेपी सत्ता में आई है। आरक्षण भी उसी जुगाली का विषय है। लोगों को ऐसे भावनात्मक विषयों पर उलझाए रखना और जनता का ध्यान उन सवालों से भटकाना जो उनके दैनिक जीवन में आते हैं और उनका ध्यान आकर्षित करते हैं, बीजेपी की राजनीति इसी ‘रणनीति’ पर चलती है।
वर्तमान में सरकार के लिए “आयात खुले और निर्यात बंद हैं, इसीलिए कृषि उत्पादों की कीमतें रसातल में चली गई हैं। किसान बर्बाद हो गए हैं। अगर खेती पर इतना हंगामा होता, तो कई राजनेता बेनकाब हो जाते! लेकिन औपचारिक समाधान के बजाय, हम हमेशा भावनात्मक मुद्दों पर आगे बढ़ते हैं और शासक भी यही चाहते हैं।
महाराष्ट्र के इतिहास में 2016 से ही हम इस आरक्षण की हड्डियाँ चबाते आ रहे हैं। 60 मराठा क्रांति मौन जुलूस निकालकर हमने भारी शक्ति का प्रयोग किया और ‘बंद मुट्ठी’ खोलकर अपनी खुद की ताकत उजागर कर दी। इससे न तो नेता पैदा हुए और न ही लक्ष्य हासिल हुआ। समय के साथ इन मार्चों से उड़ा ‘धूल का गुबार’ भी शांत हो गया। व्यवस्था परिवर्तन की शुरुआत हवा में गुम हो गई और पीछे जो एकमात्र चीज़ बची है, वह है सामाजिक घृणा! इतना तो है कि ऐसा माहौल बन गया है कि जहां हर कोई अपनी जाति के ‘खूंटे’ को कीलों से कसने में लगा हो। और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि ऐसा वातावरण बनाने वालों के चेहरों और दिमागों का पर्दाफाश नहीं हो रहा है।
मनोज जरांगे जैसे युवा ने ढाई महीने में दो बार भूख हड़ताल की। दोनों बार ही उनका अनशन समाप्त कर दिया गया। आरक्षण के इस आंदोलन में सरकार ने पिछले तीन महीने बर्बाद कर दिये हैं। यदि राज्य सरकार ने किसानों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए कृषि के विषय पर इतने दिन बिताए होते, या मराठा आरक्षण के लिए नियुक्त समिति की तरह एक आयोग नियुक्त किया होता, तो किसानों की बढ़ती संख्या के लिए एक आयोग या समिति नियुक्त की होती, किसानों की आत्महत्या, या ‘स्वामीनाथन आयोग’ की बात मान ली गई होती, तो केवल किसानों या मराठों का ही नहीं, बल्कि सभी गरीबों का विद्रोह शांत क्यों नहीं किया जा सकता था? लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार भी राज्य में अराजकता फैलाना चाहती है।
एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में, मैं अक्सर कहता हूं कि किसी भी समस्या की जड़ आरक्षण में नहीं, बल्कि कृषि और आर्थिक अभाव में है। 1960-65 तक बैंक में अपनी राशि जमा (डिपॉजिट) रखने वाले किसानों ने 1980 के बाद हरित क्रांति के कारण बैंक से ऋण लेना शुरू कर दिया। वैश्वीकरण, कृषि उपज के लिए उचित मूल्यों की कमी, बैंकों का अड़ियल रूख, मानसून पर अविश्वास आदि के कारण ये जाति समूह वर्तमान में वित्तीय संकट में हैं। इसके जवाब में खुद की जान बचाने या अपने परिवार की सुरक्षा के लिए सरकार के खिलाफ हिंसक विरोध और जाति आधारित प्रदर्शन किए जा रहे हैं। ये सभी किसान जातियां आरक्षण मांग रही हैं, क्योंकि कृषि में अब कोई आजीविका नहीं है, कम से कम अब सरकारी नौकरी से मुझे या मेरे बेटे को फायदा होगा और अगर आरक्षण होगा तो ही कोई संभावना है, यही सोच सबके मन में समाई हुई है। मूलतः, एक समय ‘अच्छी खेती, मध्यम व्यापार, छोटी नौकरी’ की मानसिकता रखने वाला यह वर्ग किसी काम या नौकरी को निम्न स्तर का काम मानता था और किसान राजा की उपाधि का दंभ भरता था, …लेकिन अब, सरकारी नीति के अनुसार, कृषि न केवल महाराष्ट्र में बल्कि पूरे देश में नष्ट हो गई है। इसीलिए आरक्षण के लिए संघर्ष जारी है। आरक्षण की यह मांग एक बीमारी का लक्षण है, मूल बीमारी कृषि और बदले में उद्योगों की बदहाली और आर्थिक पिछड़ापन है।
चुनाव नजदीक आने के साथ ही केंद्र सरकार इस साल करीब दस लाख टन तुअर दाल आयात करने की योजना बना रही है, ताकि महंगाई बम से बचा जा सके। ऐसे समझौते मोजाम्बिक के साथ किए गए हैं। देश में प्याज की कीमतों को नियंत्रित करने, बाजार में प्रचुर उपलब्धता बनाए रखने के लिए निर्यातित प्याज पर न्यूनतम निर्यात मूल्य 800 अमेरिकी डॉलर और 40 प्रतिशत का निर्यात कर लगाया गया है। चावल, गेहूं, चीनी के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। भारतीय कपास को बाजार में थोड़ी अधिक कीमत मिलने लगी, कपड़ा मिल मालिकों ने विरोध किया कि भारत में कपास महंगा है और चुनावी बांड क्या खरीदे, सरकार ने कपास की गांठों पर 11 प्रतिशत आयात कर भी हटा दिया। परिणामस्वरूप विदेशों से बड़े पैमाने पर कपास की गांठों और धागों का आयात होने लगा। अधिकांश कपास ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त राज्य अमेरिका से आयात किया जाता है, जहां उनकी सरकारों द्वारा किसानों को दी जाने वाली भारी सब्सिडी के कारण कपास सस्ता है। परिणामस्वरूप, भारत में कपास की कीमत गिर गई और कपास किसानों की मेहनत बर्बाद हो गई। सरकार ने पिछले साल 16.8 लाख टन (168,00,000,000 किलोग्राम) सोयाबीन और पाम तेल (यानी बीमारी) का आयात किया। 100 रुपये प्रति क्विंटल।
अगर यही कीमत बरकरार रखी जाए, तो भी कई लाख करोड़ रु. (168,00,000,00,000) देश से बाहर चला गया, जो किसानों को मिल जाता… तो क्या आत्महत्याएं नहीं रुकतीं? हम कब पहचानेंगे कि सरकार के ये सभी किसान विरोधी फैसले ही इस महामारी के कारण हैं? कृषि को नुकसान हुआ है, लेकिन उपरोक्त निर्णय या निर्यात पर प्रतिबंध लगाने और आयात खोलने की नीति ‘किसानों के ताबूत में आखिरी कील’ रही है। आज, कृषि के लिए आवश्यक अधिकांश इनपुट, उदा. रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, शाकनाशी, बी-बीज, बिजली, श्रम, परिवहन, डीजल, ट्रैक्टर, उपकरण, सोयाबीन की कटाई की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है. एक तरफ उत्पादन कम हो गया है और दूसरी तरफ खर्च दोगुना हो गया है और मोदी का 2022 का यह दावा कि ‘लागत से दुगना मुनाफा’ हमेशा के लिए दफन हो गया है। परिणामस्वरूप कृषि केवल मूर्खों के लिए एक व्यवसाय बन गई है।
जब हमें बुखार आता है, तो वह बुखार किसी अन्य गंभीर बीमारी का लक्षण भी हो सकता है। ऐसे में मूल दर्द का इलाज करने के बजाय बुखार की दवा लेना बेकार है। इस कारण आज की यह महती आवश्यकता है कि लोग कृषि उत्पादों की अविश्वसनीय कीमतों, दलालों द्वारा संगठित लूट, शिक्षा के उड़ते बोझ और निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा की जा रही बजाजपुरी के विरुद्ध खड़े हों! हाल के दिनों में, खासकर नब्बे के दशक के बाद से, सरकारी नौकरियों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। अगले दौर में भी इसमें कमी जारी रहेगी। तो उसके कारण ‘सरकारी नौकरी’ एक ‘भ्रम का कद्दू’ ही कही जाएगी।
संक्षेप में, आरक्षण पर मराठों की जिद एक दुराग्रह ही है और उनके सामने आने वाली समस्याओं को देखते हुए यह ‘जांघ पर घाव और पैर पर मरहम’ जैसा है। लेकिन यदि संख्या में एक हजार हाथियों का बल हो, तो सभी को वश में करना, लेकिन इस बल का प्रयोग गलत स्थान पर करना अधिक खतरनाक होता है। फिर अंधे धृतराष्ट्र, उनके समान अंधे कौरवों के पुत्रों में कोई अंतर नहीं है। और हम, याकि मराठा समुदाय, अपनी नैतिक सत्ता के बल पर, मराठों के पास बताने के लिए एक भी नेता, विचारक, विद्वान नहीं है, और अन्य जातियों के किसी भी नेता, विचारक, विद्वान के पास वह धमक भी नहीं है।
मुझे परवाह नहीं है कि मेरा यह लेख मेरे समुदाय और अन्य लोगों को प्रभावित करता है या नहीं! क्योंकि किसी को तो ‘नंगा सच’ बताना ही चाहिए।
आरक्षण आंदोलन दिन-ब-दिन भावनात्मक मुद्दों पर आधारित होने लगा है। त्रासदी उन्हीं के साथ होती है, जिनके पास ‘दृष्टि’ नहीं होती. समुदाय के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए, क्योंकि किसान, कुनबी, पटेल, गुज्जर, जाट, राजपूत, ठाकुर, वोक्कालिगा और लिंगायत या कोई भी समुदाय संख्या बल के कारण आज भी सत्ता में हैं। इसलिए उनकी त्रासदी पूरे देश की त्रासदी है और आज सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि पूरा देश उस स्थिति में पहुंच गया है।
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-प्रकाश पोहरे
सम्पादक-दैनिक देशोन्नति, दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति
(संपर्क : 98225 93921)
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