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सरकार को झुकाना है या आत्महत्या करना है?

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

रोज आपका उत्पादन बढ़ेगा, इस उम्मीद से… कोई कुछ भी कहे, वो प्रयोग करके कर्ज बढ़ाने का काम किसानों का आजकल चल रहा है!

आज सफलता मिलेगी, कल लाभ मिलेगा, ऐसा करेंगे तो पत्तियां चौड़ी होंगी, वैसा करेंगे तो सफेद मूली निकलेंगी, ऐसे स्प्रे करेंगे तो वजन बढ़ेगा, ऐसा करेंगे तो वजन बढ़ेगा, खाद डालने से पत्तियाँ अच्छी निकलेंगी….  ये सारे के सारे, किसानों को धोखा देकर पैसा कमाने वाले ही हैं।

उचित मूल्य, गारंटीकृत मूल्य, एमएसपी, स्वामीनाथन, रंगनाथन की मांग थी कि सही दाम मिले, वह कमीशन (आयोग) लागू होना चाहिए, फिर आय डेढ़ गुना बढ़ेगी. यह सुनकर हर गुजरते साल के साथ कर्ज बढ़ता ही गया। जबकि सच तो ये है कि आखिर ऐसे प्रयोग कितने वर्षों तक करते रहेंगे?

किसानों को पता ही नहीं चलता कि कब एक प्रयोग असफल हो जाता है और वे इसका दोष किस्मत पर मढ़कर एक-एक करके खेत बेच देते हैं।

कर्ज लेकर पानी के लिए पाइप लाइन बनाई, अच्छी जमीन जुताई के लिए ट्रैक्टर खरीदा, गोबर खाद के लिए जानवर पाले, कृषि को पूरक-व्यवसाय मिले, इसलिए कर्ज लेकर मुर्गियां-बकरियां खरीदीं….

किसी ने कहा
खेत तालाब बनाओ,
किसी ने कहा
ड्रिप करो,
मिर्च उगाओ,
कपास लगाओ,
मूंग लगाओ,
धान रोपें,
सोयाबीन लगाओ,
अंगूर लगाओ,
केले लगाओ,
अनार लगाओ,
पपीता लगाओ,
बैंगन लगाओ,
ये लगाओ,
वो लगाओ…..

ये सारे उद्यम किये गए और अंततः रुक गए, लेकिन केवल कर्ज और ब्याज ही बढ़ा…. !!!

सरकार से मिली छूट फर्जी निकली। जिस तरह प्रतिदिन चारा खिलाकर बढ़ाए गए बकरे पर जब उसे काटने के लिए उसके शरीर पर मांस बढ़ने-चढ़ने का इंतजार किया जाता है, वैसे ही किसानों की ओर देखने की सबकी दृष्टि हो गई है….!
खाद वाला,
औषधि वाला,
बैंक वाला,
ऋणदाता साहूकार,
सरकार,
आढ़तिया (दलाल),
शक्कर कारखाने वाला,
दूध संघ वाला,
जिनिंग वाला,

ये सभी लोग उस वक्त का इंतजार करते रहते हैं कि कब किसान अपनी गर्दन कटवाने आता है!

कड़वा सच यही है कि कोई नहीं चाहता कि किसान बड़ा हो। जिस प्रकार बकरा यह सोचकर उछलकूद करता रहता है कि मालिक उससे प्रसन्न है, और अंततः उसे एहसास होता है कि इसने उसकी देखभाल क्यों की? उसी प्रकार किसान को भी समय निकल जाने के बाद यह एहसास हो जाता है कि इन्होंने उससे अधिक उत्पादन करने के लिए क्यों कहा!

साल में तीन फसलें लेने, पानी देने और खाद डालने से खेत बंजर हो जाते हैं, लेकिन प्रयोग कभी नहीं रुकते। जिससे भी पूछो, तो कहते हैं कि घर की खेती है, क्या उसे बंजर ही रहने देना चाहिए? और फिर, भागदौड़ और आय दोगुनी करने की कोशिश में कर्ज कब दोगुना और तिगुना हो जाता है, पता ही नहीं चलता. फिर दूसरा कड़वा सच यह भी है कि रोजाना हो रहीं किसानों की आत्महत्याएं अब हमारे दिमाग को भी सुन्न नहीं करतीं….!!

कोई भी इस बारे में बात करने को तैयार नहीं है।
निसर्ग बदला हुआ
पानी नहीं है
पानी है, तो बिजली नहीं
आपको जितने बीज चाहिए वो नहीं मिलते
मिल भी जाए, तो खाद नहीं मिलती
अगर मिल भी गया, तो खरीदने के लिए पैसे नहीं होते
अगर हम इन सब से बच गए और फसलें आ गईं….
तो उसे जंगली जानवर नष्ट कर देते हैं!
यदि इससे भी बच गए, तो फिर फसल को उचित दाम नहीं मिलते।

दोस्त के रूप में मदद करने वाला भी कोई नहीं, …दुश्मनों की सूची अंतहीन है।
कृषि एक संस्कृति है,
उत्तम कृषि, मध्यम व्यापार, कनिष्ठ नौकरियाँ, ऐसा पहले कहा जाता था।
फिर किसान ख़ुश, जग ख़ुश… ऐसा भाषणों में कहा जाने लगा।
घोषणाएं सुनते-सुनते कान पक गये हैं।
खेती करने वाला किसान, वहीं मिट्टी में दबा हुआ है।

अपने पिता की छाती पर हाथ रखकर सोने वाले बच्चों से पूछो, तुम अपने पिता की छाती पर हाथ क्यों रखते हो? तो उसका जवाब आता है कि पापा जिंदा हैं! इसे जांचने के लिए आपको अपना हाथ रखना होगा!

कृषि पर कविता लिखने वाले अच्छे से रहते हैं,
कृषि पर उपन्यास लिखने वाले आराम से रहते हैं,
किसान आत्महत्या पर एक किताब लिखने वाले भी मजे में रहते हैं।
खेती कैसे करें? ये बताने वाले भी मजे में रहते हैं।

जबकि उनके द्वारा निर्वाचित लोग तो बहुत खुशी से रहते हैं और बार-बार चुने जाते हैं!

जो किसान कृषि उत्पाद बेचते हैं, सड़क पर सब्जियां बेचते हैं, वे घर बनाते हैं, संपत्ति खरीदते हैं, अच्छा जीवन जीते हैं और कई जोखिम उठाकर कृषि उत्पाद पैदा करने वाले किसान खेती क्यों बेचते हैं?
अपना ही घर-संसार क्यों उजाड़ते हैं?
और…. आख़िर वे आत्महत्या क्यों करते हैं?…..

यह सब भयानक सत्य है। यहां की राजनीतिक सत्ता ने हमारी कृषि और किसानों की उपेक्षा ही की है!

किसान कब समझेंगे कि इन सारे सवालों के जवाब मांग और आपूर्ति वाले फॉर्मूले में है!

किसानों की आत्महत्या का असली कारण खेती में हो रहा घाटा है और इस घाटे के पीछे का कारण खेती की बढ़ी हुई लागत है। आज जो किसान कर्ज के कारण आत्महत्या कर रहा है, वह वही किसान है, जो 1960-65 के दौरान बैंक में जमा राशि (डिपॉजिट) रखता था! क्योंकि तब उसे एक क्विंटल कपास बेचने पर 30 से 36 ग्राम सोना मिलता था और लागत नगण्य थी, क्योंकि बीज, गोबर घर में बैलों द्वारा बनाया जाता था. मजदूरों को मजदूरी अनाज (ज्वार) के रूप में दी जाती थी।

जबकि आज एक क्विंटल कपास बेचने पर केवल एक ग्राम सोना ही मिलता है और साथ ही गन्ने के लिए संकर बीज, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, शाकनाशी, मजदूरी, बिजली और डीजल के कारण कृषि की लागत बहुत बढ़ गई है…. और घरेलू खर्च, और कृषि उपज की अपेक्षाकृत कम लागत, इस महंगी खेती के परिणामस्वरूप, उसका कर्ज कभी भी पूरा नहीं हुआ, जिसके परिणामस्वरूप किसानों की आत्महत्याएं बढ़ रही हैं!

लोगों को, यहाँ तक कि किसानों के शहरी भाइयों को भी किसी और चीज की कीमत बढ़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जब खाने-पीने की चीजों की कीमत थोड़ी ज्यादा बढ़ जाती है, तो उन पर आसमान टूट पड़ता है। सरकार सिर्फ वोटों पर जीती है और उसे इसकी परवाह नहीं है कि इसकी वजह से किसी और चीज की कीमत कितनी बढ़ जाती है। लेकिन गरीब लोग अपना पेट सस्ते में भर सकें, इसलिए भले ही किसान मर जाए, उसके कृषि उत्पादों की कीमत बढ़ने से रोकने के लिए स्टॉक प्रतिबंध, क्षेत्र प्रतिबंध, निर्यात प्रतिबंध और खुले आयात जैसे सभी तंत्र लागू किए जाते हैं।

इसका केवल एक ही रास्ता है और वह है आपूर्ति और मांग के नियम को समझना. आपूर्ति और मांग का नियम यह कहता है कि जब आपूर्ति, मांग से अधिक होती है, तो कीमतें गिरती हैं और जब आपूर्ति मांग से कम होती है, तो कीमतें बढ़ती हैं@

जब किसान खुश था, जब शहर के लोग ‘भोजन के लिए दुनिया को पलटने’ की स्थिति में थे। संक्षेप में, जब शहरवासी भूख से मर रहे थे, तब किसानों के ‘अच्छे दिन’ आ रहे थे।
अगर उन अच्छे दिनों को वापस लाना है, तो किसानों को मांग और आपूर्ति के फार्मूले को ध्यान में रखकर काम करना होगा।

उनकी समस्या का उत्तर तो उनके ही हाथ में है, लेकिन किसानों की स्थिति यह है कि ‘तुम्हारा सब कुछ तुम्हारे ही पास है, फिर भी तुम चूक गए हो!

आज जब देश में सरकारी गोदाम कृषि उपज से भरे पड़े हैं, तब सरकार लोगों को मुफ्त अनाज देने की ‘मूर्खता’ कर रही है। गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरी, मक्का, अरहर, चना, मूंग, उड़द आदि खाद्यान्नों की कमी पैदा किए बिना इस स्थिति में सुधार नहीं किया जा सकता है और इसके लिए अगले दो-तीन वर्षों में किसानों को ऐसे उत्पादों का उत्पादन करना चाहिए, जिन्हें सीधे खेतों से घर ले जाकर नहीं खाया जा सकता है! यानी सरसों, करडी, सूरजमुखी, अलसी, जूट, सोयाबीन या गन्ना, हल्दी, अदरक, चारा फसलें, बांस के फल, हरित ईंधन का उत्पादन और न्यूनतम प्रसंस्करण उद्योग स्थापित करना।

सरकार को झुकाने का इतना आसान उपाय है। अब बोलो किसानों, क्या आप अपनी लाचारीभरी जिंदगी खत्म करना चाहते हैं? या… आत्महत्या करना चाहते हैं? या… क्या आप उन लोगों को सज़ा देना चाहते हैं जिन्होंने हमारे लिए यह स्थिति पैदा की?
आप जो भी निर्णय लें, मुझसे संपर्क अवश्य करें!!!

लेखक : प्रकाश पोहरे
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(प्रकाश पोहरे से सीधे 98225 93921 पर संपर्क करें या इसी व्हाट्सएप नंबर पर अपनी प्रतिक्रिया भेजें। कृपया प्रतिक्रिया देते समय अपना नाम-पता लिखना न भूलें)

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