देश और प्रदेश की वर्तमान राजनीति को देखकर हमें अठारहवीं सदी की याद आती है। उस समय भारत में सर्वत्र युद्ध चल रहे थे। भारतीय राजा-महाराजा एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ रहे थे। इनमें से कई राजा यूरोपीय सेनाओं की सहायता ले रहे थे। मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद कोई केन्द्रीय सत्ता बची नहीं थी। पंजाब की जनशक्ति मूलतः कम हो गई थी। मराठों के पास संख्या बल था, लेकिन वे एक-दूसरे से लड़ भी रहे थे। चूँकि तत्कालीन बंगाल प्रान्त का राजस्व सदैव सर्वाधिक रहता था, इसलिए उसके राजाओं में समृद्धि से उत्पन्न होने वाला आलस्य पाया जाता था। यदि उन राजाओं ने ईस्ट इंडिया कंपनी को दिए गए धन का उपयोग यहां के शासन को सुधारने में किया होता, तो कंपनी और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार यह शेखी भरा दावा नहीं कर पाती कि ‘अगर हम भारत छोड़ देंगे, तो यहां जंगल-राज आ जाएगा। इसीलिए हम यहां शासन कर रहे हैं।’
मौजूदा माहौल भी उससे अलग नहीं है। हालाँकि, अठारहवीं सदी में लड़ाइयाँ तलवारों और बंदूकों से लड़ी जाती थीं, जिनकी जगह अब चुनावों ने ले ली है। अठारहवीं सदी की सेनाएं ‘लोगों की जान’ लूट लेती थीं, ऊर्ध्वाधर खेतों में घोड़ी पर सवार होकर धूल उड़ाते हुए जाती थीं। अब लोगों का समय लूटा जा रहा है और बौद्धिक भेदभाव किया जा रहा है। पिछले छह महीने से गोदी मीडिया चैनल इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि किस विधानसभा क्षेत्र में कौन से उम्मीदवार सुर्खियों में हैं और उनकी संभावनाएं क्या हैं!
वर्तमान मुख्यमंत्री कहते हैं कि ‘मैं ही कैप्टन हूं’, लेकिन वो पहले जिस पार्टी के थे, उसी पार्टी के कैप्टन को इन्होंने ही हताश कर दिया था। ये इतिहास तो कल की ही बात है। तो क्या हमें और अधिक आश्वस्त होना चाहिए कि उनके खलनायक उनके आसपास ही होंगे, या क्या हमें उनकी पाताल तक पहुंची राजनीति पर विश्वास करना चाहिए? ये सवाल है उपमुख्यमंत्री पद का। फिलहाल एक उपमुख्यमंत्री हताश हैं। क्या उन्हें यह डर है कि हमें हमारे किले से ही हराया जा सकता है या फिर यह धमकी देने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं है कि अगर मेरी जरूरत है, तो मैं मुख्यमंत्री के रूप में ही उपलब्ध रहूंगा? और जो दूसरे उपमुख्यमंत्री हैं, वो पहले मुख्यमंत्री रह चुके हैं, फिर भी दोयम दर्जे का पद संभालने को तैयार हैं।
पिछले सप्ताह ही घोषणा की गई थी कि मुख्यमंत्री ने एक लाख करोड़ से अधिक के पूंजी निवेश समझौतों पर हस्ताक्षर किये हैं। अनुबंध पर हस्ताक्षर करना वास्तविक निवेश से अलग है। यहां पूंजीपतियों और सरकार के बीच टालमटोल की प्रतिस्पर्धा दिखती हैं। भले ही सरकार किसी परियोजना को मंजूरी दे देती है, लेकिन वास्तव में अपना काम शुरू करने के लिए कई सीमाएं पार करनी पड़ती हैं। अन्यथा, फ़ाइल किसी विशाल सरकारी सुविधा के अंधेरे, गंदे कमरे में पड़ी रहती है। दूसरी ओर ‘लाडली बहन, लाडला भाई/तीर्थयात्रा, किसान’ की घोषणाएं और योजनाएं हैं हीं। उसमें भी ‘लाडला पेंशनभोगी’ (वास्तव में कोई भी प्यारा यानि लाडला नहीं होता) योजना आएगी… ऐसा बोला जाता है. गैर-उत्पादक कारणों से सार्वजनिक कराधान से प्राप्त राजस्व पहले ही बर्बाद हो चुका है।
कोलकाता और बदलापुर में महिला-बालिका उत्पीड़न के जिन मामलों से देश और प्रदेश का सिर शर्म से झुक गया था, उन्हें अब भुला दिया गया है।
अगर किसी ने ‘गैंग्स ऑफ न्यूयॉर्क’ फिल्म देखी हो, तो उन्हें एहसास होगा कि यहां कोई राजनीति नहीं है, कोई सत्तानीति नहीं है। यहां है तो सिर्फ टोली-युद्ध या गैंग-वार चल रहा है। वही दुश्मनी, एक-दूसरे को मारने की भाषा, गैंग बदलना, नए-नए गैंग बनाना या गैंग लीडर को दरकिनार कर गैंग पर कब्ज़ा करना! और तो और, बीजेपी खुद एक गैंग लीडर के इशारे पर चलने वाली एक देशव्यापी गैंग ही है। फिर से हम 18वीं शताब्दी में आते हैं, जब हिंदू-मुस्लिम राजा अस्थायी रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ खड़े होने के लिए एक साथ आए थे। पहले सारे नारे ‘गैर-कांग्रेसी दल’ थे, अब सारे ‘गैर-भाजपा दल’ में बदल गये हैं। इसका मतलब यह है कि देश दो देशव्यापी गुटों, भाजपा और कांग्रेस के बीच लंबे समय से चल रही लड़ाई में फंसा हुआ है।
हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में बलवान गैंग को अच्छा झटका लगा है। इसका असर प्रधानमंत्री के चेहरे पर भी साफ दिखने लगा है। लोकसभा चुनाव के पहले चरण में प्रधानमंत्री ने ‘हिंदुत्व कार्ड’ निकाला, फिर कांग्रेस के घोषणापत्र को ‘मुस्लिम लीग’ का घोषणापत्र बताया। इसका उन्हीं पर उल्टा असर पड़ा। यह बहुत अच्छा हो गया। यहां तक कि रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा भी उन्हें रास नहीं आई, उन्हें खुद फैजाबाद में मुंह की खानी पड़ीं।
संसद में भी गैंगवार चल रहा है। (वित्त मंत्री तो सार्वजनिक नल पर लड़ाई जैसे इशारे करने में बहुत कुशल हैं।) चूंकि बहुमत है, इसलिए सरकार को कुछ भी समझाने की जरूरत महसूस नहीं होती है – सिवाय इसके कि कांग्रेस सबसे लंबे समय तक सत्ता में रही है, इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी को किसी भी कठिन सवाल को उन तक पहुंचाने और इतिहास का हिस्सा बन चुके कांग्रेस नेताओं की बदनामी करने में ज्यादा दिलचस्पी होती है। फिर विपक्षी दल सरकारी दल के ‘नायकों’ की बात करने लगता है। हमारे प्रधानमंत्री खुद संघ के कूड़ेदान से आने वाले ‘पौराणिक’ संदर्भ (‘ऐतिहासिक’ नहीं, क्योंकि इसे पढ़ने और अध्ययन की आवश्यकता है) देने में सक्षम हैं! फिर विपक्ष के नेता भी संसद में अंधभक्तों की तस्वीरें लेकर आते हैं और दिखाते हैं कि ‘हम भी कुछ कम नहीं’। इन सभी गिरोहों में दो बातें समान हैं। हर कोई सत्ता में हिस्सेदारी चाहता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह सही भी है और सत्ता पाने का हर किसी का तरीका एक ही है। ‘सत्ता के लिए सत्ता’ ही उनका दर्शन है!
सभी ने यह मान लिया है कि हमारे देश में गरीबी और आर्थिक विषमता रहेगी। जब तक हम निर्वाचित नहीं होंगे, हमें सत्ता नहीं मिलेगी। निर्वाचित होने के लिए गरीब मतदाताओं पर निर्भर रहना होगा (क्योंकि गरीबी के अभिशाप से मुक्त मतदाता कभी भी उत्साहपूर्वक मतदान नहीं करते) और इसलिए गरीबी को बनाए रखना होगा, वैसे ग़रीबी थोड़ी-सी हटानी भी होगी, अन्यथा गरीब लोग आपकी ओर आकर्षित नहीं होंगे। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए कम से कम सैद्धांतिक तौर पर पूंजीवादी-निवेशकों के लिए सुविधाजनक नीतियां तय करनी होंगी। यदि पूंजी कम पड़ेगी तो विदेश से लानी पड़ेगी।
पारंपरिक अर्थव्यवस्था में निवेश से कितनी नौकरियाँ पैदा होंगी, इसका गणित प्रबंधित करने की एक पद्धति थी। नई अर्थव्यवस्थाओं में, वह गणित टूट जाता है। यह स्पष्ट है कि उत्पादन, प्रशासन, बिक्री के तरीकों के स्वचालन से रोजगार कम होगा। अत: अर्धशिक्षित एवं सुशिक्षित बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि होगी। जो कल के मतदाता होंगे, उन्हें महीने में पंद्रह दिन ‘मेरी आवाज सुनो’ के साथ ‘अच्छे दिन आएंगे’ की खुराक दी जाएगी। गपशप और ‘हितगुज’ करने की यह नई ‘मन की बात’ वाली अफ़ीम पिछले दस सालों से युवाओं और बेरोज़गारों में जड़ें जमा चुकी है।
अब उसी प्रकार का पैसा (लेकिन बेरोजगारी भत्ता नहीं) गरीबों, युवाओं और महिलाओं को दिया जा रहा है। राज्य स्तर पर भी सत्ताधारी दल ‘लाडला / लाडली’ शब्द का प्रयोग कर जितना चाहे गरीब बच्चों को ‘पूतना मौसी’ बन कर दूध पिलाने तैयार है। इससे क्या गरीबी मिटाई जा रही है या कायम रखी जा रही है? अब वोट बैंक गरीबों का होगा और उसमें जाति-धर्म-वर्ग का तड़का लगेगा।
मान लीजिए कि एक परिवार में माता-पिता-बहन-भाई जैसे चार-पांच लोग हैं, तो महाराष्ट्र में कम से कम 5-6 हजार रुपये उस ‘गरीब’ परिवार को गरीब… लेकिन जिंदा रखेंगे। मुफ़्त अनाज की व्यवस्था पहले से ही है, तो लोगों को गाँव-गाँव से काम पर लाना कितना मुश्किल होगा? खेतिहर मजदूर पहले से ही नहीं मिल रहे हैं। क्योंकि कृषि में पैसा नहीं है। किसान मौजूदा मूल्य स्तर पर बढ़ी हुई मजदूरी की मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं।
लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की विपरीत परिभाषा वर्तमान में राजनीतिक दलों द्वारा अपनाई गई है। विचार यह है कि सरकार को उन लोगों की देखभाल करनी चाहिए, जो कुछ शारीरिक विकलांगताओं के कारण दूसरों के साथ काम करने में असमर्थ हैं और उन निराश्रितों का समर्थन करना चाहिए, जो बुढ़ापे के बाद अकेले रह जाते हैं, कमजोर वर्गों के सशक्तिकरण के लिए नीतियां तैयार करनी चाहिए और असाधारण मामलों – प्राकृतिक आपदाएं, दुर्घटनाएं, महामारी – में सीधे भुगतान प्रदान करना चाहिए। यह मूल परिकल्पना कोई अस्वीकार नहीं करेगा। लेकिन देश के सबसे बड़े उत्पादन क्षेत्र (कृषि) को वित्तीय गुलामी में रखने के लिए, वास्तविक किसानों के हाथ में चार पैसे जाएंगे और वे उससे अपनी पूंजी जुटाएंगे, इस संभावना को 75 वर्षों तक नोंक पर रखा गया था। उत्पादन और सेवा क्षेत्र में वेतन कम रहे, इसलिए कृषि उत्पादों की कीमतें कम करने की नीतियां लागू की गईं, किसान के लिए बाजार की स्वतंत्रता कायम न रहे, इसलिए सल्तनत ने जानबूझकर इन संकटों को बढ़ाया। ‘मेहनत की रोटी’ को छीनकर ‘भीख के भोजन’ को बढ़ाना और फिर से इसे ‘लाडला /लाडली /किसान सम्मान’ की उपाधि देना कितनी नीचता है! महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘लाडली बहन’ योजना के लिए निर्धारित 46,000 करोड़ रुपये से कमजोर महिलाओं और अन्य कमजोर समूहों को समान रूप से सशक्त बनाने के लिए अन्य स्थायी तंत्र स्थापित किए जा सकते थे। सबको गरीब बनाकर दान देना किसी भी अर्थशास्त्र में फिट नहीं बैठता, लेकिन आज की सरकार ने ‘भिखारीवृत्ति’ करके दिखा दिया है।
क्या हम लोकतंत्र के नाम पर मध्य युग या सामंतवाद की ओर वापस जा रहे हैं? उस समय सामंत और राजा उत्पादक किसानों को लूटते थे, जबरन वसूली करते थे और उनमें से कुछ लुटेरे बनने के लिए सेना में शामिल हो जाते थे और साजिश रचते थे कि कोई रास्ता नहीं बचेगा।
हालाँकि, जब सूखे के दौरान भोजन की कमी होती थी, तो ये सामंत अपने स्वयं के अनाज के खेतों को छोड़ देते थे (अगले वर्ष सूखे के बाद, क्योंकि उन्हें खेतों में काम करने के लिए लोगों की आवश्यकता होती थी) और लोगों को खाना खिलाते थे। नदियों के घाट, जलसेतु, बड़े-बड़े मंदिर, वहां चलने वाली भोजन दुकानें वास्तव में श्रमिकों की लूट से बनाई जाती थीं। हालाँकि उसका श्रेय राजा, सेठ-साहूकारों को ही मिलता था। इस साल रामलला के दर्शन के मौके पर अयोध्या में जो नजारा बना, प्रधानमंत्री पर फूल फेंके गए, उनके साथ किसी और को चलने की इजाजत नहीं दी गई, उसे देखकर सवाल उठता है कि हम वाकई पीछे जा रहे हैं।
असमानता, अकुशलता, असहिष्णुता, अंधा स्वार्थ, कानून के प्रति अवमानना और कमजोर वर्गों के प्रति उदासीनता इत्यादि आज भी परेशान करती हैं। इसका कारण यह है कि हम ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं बना पाये हैं कि कोई भी व्यक्ति आकर बैठे तो भी व्यवस्था ठीक से चलती रहे और उससे सही काम मिले। हमने लोकतंत्र की विशाल मशीनरी को व्यक्तियों के हाथों में सौंप दिया है। व्यक्ति बूढ़े हो गए, लेकिन लोकतंत्र (वास्तव में, लोग) छोटे ही रह गए! इन सभी बुनियादी सवालों के रहते ही शासकों की भाषा बदल जाती है, जब आज के विरोधी सत्ता में आते हैं, तो वे पिछले शासकों की भाषा का प्रयोग करने लगते हैं।
आज की सबसे बड़ी ज़रूरत एक ऐसी नीति की है जिसमें वास्तविक आर्थिक सामग्री हो और अधिक से अधिक व्यक्तियों को अपने कौशल का उपयोग करने, उत्पादक श्रम में संलग्न होने और पारिश्रमिक ‘आरामदायक और सम्मानजनक’ जीवन जीने के अवसर प्रदान करें। मार्क्स ने कहा था, ‘प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार’… मैं इसका मतलब यह मानता हूं कि हर व्यक्ति में क्षमता है। लेकिन वर्तमान में उन गिरोहों (गैंग्स) की राजनीति चल रही है, जो क्षमतावान लोगों को अपंग कहकर उनकी क्षमताओं का अपमान करते हैं और उन पर लांछन लगाते हैं। इस ‘भीख मांगने की संस्कृति’ को जड़ से उखाड़ने और उत्पादक/उद्यमशील गरिमा की संस्कृति को विकसित करने की आवश्यकता है। ‘मुझे क्या लेना-देना?’ जैसे स्थिर विचारों वाले नागरिकों को अपनी यह मनोवृत्ति छोड़कर वास्तव में उन पर अमल करना चाहिए। जो लोग इससे सहमत हों, वे यथाशीघ्र अपने विचार मुझ तक पहुंचायें। मैं प्रतिक्रियाओं का इंतजार कर रहा हूं।
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लेखक : प्रकाश पोहरे
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