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2025 का ‘किसानों को मारने का मास्टर प्लान’!

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प्रकाश पोहरे, (संपादक- दैनिक देशोन्नति, दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

पहले ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ इंसान की बुनियादी जरूरतें थीं। चूँकि किसान इसमें रोटी और कपड़े की आवश्यकता पूरी करता था, इसलिए उसे अन्नदाता कहा जाता था। समय के साथ व्यापारियों ने उन सामानों को काले बाजार में जमा करना शुरू कर दिया, क्योंकि सरकार ने भी ऐसे कानून व्यापारियों के फायदे के लिए ही बनाए थे। तब ये चीजें गरीबों की पहुंच से बाहर होती गईं। इसलिए सरकार ने इन वस्तुओं को सस्ता करने के लिए फिर से कानून बनाए, लेकिन इससे भंडारण या व्यापारियों के मुनाफे में कोई कमी नहीं आई। दिल्ली में चतुर राजनेताओं और बड़े अधिकारियों ने सीधे कृषि उपज की कीमत कम कर दी। जिसे हम ‘कृषि मूल्य आयोग’ कहते हैं, उसका कृषि मूल्य निर्धारणकर्ताओं, किसान हित और कृषि से कोई लेना-देना नहीं है।

आज गरीब और मध्यम वर्ग की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। उनके लिए बिजली, पानी, गैस और काम करने के लिए परिवहन और मोबाइल उतना ही महत्वपूर्ण हो गए हैं, जितना जीवित रहने के लिए भोजन! ऐसा परिवार ढूंढना, जो इन ज़रूरतों के बिना रहता हो, एक चुनौती है. यदि ऐसा कोई परिवार नहीं है, तो कोई मध्यम वर्ग या गरीब हल्ला क्यों नहीं मचाता, जबकि यह हर साल तेजी से बढ़ रहा है? और सरकार को इनके होहल्ले की कोई परवाह नहीं है। तो फिर कृषि उत्पाद सस्ते करने की ही जिद क्यों?

पिछले कुछ वर्षों में गैस, रेलवे टिकट, हवाई टिकट, पेट्रोल की कीमतों में लगभग 100 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। बिजली बिल भी 100 फीसदी से ज्यादा बढ़ गए। इस एक साल में बिजली का बिल 30 फीसदी तक बढ़ गया। इसे सभी ने स्वीकार किया है। इस मूल्य वृद्धि के लिए कोई आंदोलन नहीं, कोई होहल्ला या हंगामा नहीं!

यह बिल्कुल ताजा खबर है. बढ़ती महंगाई को कम करने के लिए सरकार ने 2025 तक का ‘मास्टर प्लान’ तैयार किया है! अब यह योजना क्या है? सरकार ने घोषणा की है कि 31 मार्च 2025 और उससे आगे तक अरहर, उड़द और अन्य दालों की कीमतों में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी। अब ये मास्टर प्लान है…या किसानों को मारने का प्लान..?

इस वर्ष अनियमित वर्षा के कारण चावल, गेहूं, दालें, सब्जियों और फलों का उत्पादन कम हो गया है। स्वाभाविक रूप से, खाद्यान्न की कीमत में मामूली वृद्धि हुई। अनाज के दाम बढ़ गए, जिसे जनता और विपक्षी दल महंगाई के नाम पर रोते हैं। ऐसा रोना-पीटना शुरू होते ही सरकार की चिंता बढ़ जाती है, क्योंकि इस ‘ओछे या सस्ते रवैये’ का मतलब सरकार का ‘वोट बैंक’ ही है। इसीलिए सरकार दाल, चावल, गेहूं, सब्जियां, प्याज, टमाटर, खाद्य तेल, दूध की कीमतें कम करने की दिशा में आगे बढ़ती है। इससे पहले प्याज के निर्यात पर रोक लगा दी गई थी। इसके बाद गेहूं और चावल के निर्यात पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके विपरीत दाल, खाद्य तेल, फलों के आयात की नीति जोरों पर चल रही है। अब, सरकार ने दालों के लिए शुल्क-मुक्त आयात नीति को एक और साल के लिए बढ़ा दिया है, ताकि कुछ को मुफ्त और कुछ को सस्ती उपलब्ध कराई जा सकें। महज छह महीने के भीतर लोकसभा के आम चुनाव होने वाले हैं। यानी अगर महंगाई का रोना है, तो क्या हम अनाज का आयात करें, निर्यात पर प्रतिबंध लगाएं और घरेलू कृषि उत्पादों की कीमतें कम करें? स्वाभाविक रूप से हमें सस्ते दामों पर अनाज मिलता है, और महंगाई कम हो गई है, इसका ढिंढोरा पीटते हैं! ये है सरकार का 2025 तक का ‘मास्टर प्लान’ यानि किसानों को ख़त्म करने का मास्टर प्लान!

क्या महँगाई केवल तभी बढ़ती है, जब कृषि वस्तुओं की कीमतें बढ़ती हैं? वास्तव में, यदि कृषि वस्तुओं की उत्पादन लागत और जोखिम को मान लिया जाए, तो ‘मुद्रास्फीति’ की परिभाषा यहां लागू नहीं होनी चाहिए। चाहे साबुन, पेट्रोल, डीजल, गैस, दवा, सीमेंट, लोहा, मोबाइल डेटा, दोपहिया-चौपहिया वाहन, सिनेमा, केबल टीवी, रेलवे, बस टिकट, चाय, होटल में नाश्ता-चाय, भोजन के दाम कितने भी बढ़ जाएं…. लेकिन उन पर कोई होहल्ला नहीं करता, लेकिन किसानों द्वारा उत्पादित अनाज, दूध, फल, सब्जियां, प्याज, आलू, तिलहन, दालों के दाम जरा-सा भी बढ़ जाते हैं, तो और शहरों में ‘महंगाई’ बढ़ने का शोर शुरू हो जाता है, यह जानबूझकर किया जाता है, क्योंकि आम जनता, होटल और खाद्य उद्योग ये सभी सामान सस्ते में चाहते हैं। चाहे उन चीजों को पैदा करने वाला किसान आत्महत्या ही क्यों न कर ले! शहरी मध्यम वर्ग, सरकार और खाद्य उद्योग की इस मानसिकता को बदलने की सरकार और सोशल मीडिया के सामने एक बड़ी चुनौती है।

अखबार/मीडिया वाले इस तरह की हेडलाइन देते हैं। कृषि उपज, दूध, दाल या मेथी/धनिया जूड़ी ‘महंगी’, प्याज ने लाया आंखों में पानी, फ्राई करना हुआ महंगा, टमाटर का दाम आसमान पर। मगर हकीकत तो यह है कि शहरी लोगों की बदलती जीवनशैली, फिजूलखर्ची भरी संस्कृति के कारण मासिक खर्च तीन गुना महंगा हो गया है। इस पर्दे के पीछे की अदृश्य महंगाई को जानबूझकर नजरअंदाज किया जाता है और खास बात यह है कि महंगाई भत्ता पाने वाले कर्मचारी-अफसर वर्ग को भी मेथी की कीमत में पांच रुपये का इजाफा हुआ भारी लगता है। जैसे ही कृषि उपज और सब्जियों की कीमतें थोड़ी-सी बढ़ती हैं, ‘घरेलू खाना पकाने की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई है’, ‘हम कैसे जिएं’, ‘आम लोगों की कमर टूट गई’, ‘प्याज ने रुलाया’, ‘महंगाई आसमान छू गई’ आदि शब्दों और शीर्षकों का रोना शुरू हो जाता है, जिसमें दुर्भाग्य से ग्रामीण किसानों के शहरी रिश्तेदार भी शामिल होते हैं। ऐसी खबरें छापने वाले मीडिया पर वास्तव में अफवाह फैलाने का मामला दर्ज किया जाना चाहिए। या कम से कम किसानों द्वारा उसका बहिष्कार किया जाना चाहिए। शहर का मध्यम वर्ग ग्रामीण इलाकों के किसानों और खेतिहर मजदूरों की तुलना में अधिक अमीर है। आज कृषि इनपुट अर्थात रासायनिक उर्वरक, पंप, उपकरण, बीज, बिजली, पानी, मशीनरी, श्रम, परिवहन, डीजल, चारे की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है। ऐसे समय में कोई नहीं कहता कि महंगाई बढ़ गई है। कोई मोर्चे नहीं निकालता, खासकर किसान सड़कों पर नहीं आते।

मूल रूप से, किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अमीरों या उन लोगों से कर लेना स्वीकार्य है, जिनके पास बहुत कुछ है और फिर जिनके पास नहीं है, उन्हें आवश्यकताएं और जीवित रहने के साधन देने की प्रक्रिया पूरी दुनिया में अलग-अलग तरीके से लागू की गई है। कहीं सीधे भुगतान किया जाता है, कहीं भोजन या अन्य कूपन दिए जाते हैं। इसके लिए स्थानीय सरकार अपने खजाने से पैसा खर्च करती है। भारत में वैसे तो अनाज सस्ता या मुफ्त दिया जाता है, लेकिन यह नीति किसानों के लिए गले की फांस बन जाती है। यही कारण है कि देशभर में हर दिन 24 घंटे में 250 किसान आत्महत्या करते हैं। आत्महत्याओं का यह ग्राफ दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। सरकार को क्या यह उम्मीद है कि यह आंकड़ा 2,500 या 25,000 तक चला जाए? कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित करने की अपेक्षा की जाती है, जो सभी के लिए समान अवसर प्रदान करें। दावा है कि ये सब चल रहा है। लेकिन हकीकत अक्सर अलग होती है। इस ‘आईजी के जीवन पर बाईजी उदार’ अर्थात उन्मुक्तता का उपयोग कुछ समय के लिए स्वार्थ सिद्धि के लिए व्यापक रूप से किया जाता है। कम से कम हमारे देश में तो यही स्थिति है।

हर राज्य सरकार और कुछ हद तक केंद्र सरकार भी अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए मतदाताओं को कई चीजें मुफ्त देने का प्रलोभन देती हैं। तो फिर मुफ्त में अनाज ही क्यों दें? देने के लिए… मुफ्त साबुन, पेट्रोल, बिजली, किसानों को साइकिल, किसानों को बिजली, कृषि इनपुट, चिकित्सा उपचार, शिक्षा, किताबें, छोटी मोटर साइकिल, लैपटॉप, मोबाइल, डेटा, टूथपेस्ट, औद्योगिक उत्पाद भी देना चाहिए, लेकिन सरकार ऐसा नहीं करेगी, क्योंकि सरकार खाद्यान्न की बढ़ती महंगाई की कृत्रिम तस्वीर सिर्फ इसलिए बनाना चाहती है, ताकि इसे पैदा करने वाले किसान संगठित नहीं हैं और इसी कारण वे कोई हंगामा खड़ा नहीं कर सकते।

इन दिनों तथाकथित अमीर लोग भी सोच रहे हैं कि अगर हम टैक्स देते हैं, तो सरकार हमारे लिए क्या करती है! अगर सरकार हमें कुछ मुफ्त या सस्ता दे तो क्या फर्क पड़ जाएगा? उन्होंने ये सवाल पूछना शुरू कर दिया है। इतना ही नहीं, सरकार बनने के इच्छुक जन प्रतिनिधियों को मुफ्त सुविधाएं देने में क्या हर्ज है, यह विचारधारा भी अब तक सामने आ चुकी है। यह वर्तमान भ्रम की शुरुआत है। आजादी के बाद से गरीबों के लिए कई सरकारी योजनाएं लागू की गई हैं। हम सबने देखा है कि उन्होंने गरीबों का कितना भला किया है! राजीव गांधी जब प्रधान मंत्री थे, तो उन्होंने यह कहकर इन सभी प्रणालियों को ध्वस्त कर दिया था कि ‘जब सरकार एक रुपया खर्च करती है, तो केवल पंद्रह पैसे ही वास्तविक लाभार्थी तक पहुंचते हैं।’ बेशक इन सस्ती और मुफ्त घोषणाओं से सरकार और प्रशासनिक तंत्र का चेहरा सफेद हो जाता है, लेकिन कृषि उपज को सस्ता करने का मामला इससे भी गंभीर है, यह किसानों के लिए मौत का कारण बन रहा है।

महंगाई बढ़ने के पैमाने बताते समय हम हमेशा खाने-पीने की चीजों का ही उदाहरण देते हैं। हालाँकि, अन्य वस्तुओं की कीमतें और प्रोफेसरों और सरकारी कर्मचारियों के वेतन के साथ-साथ विधायकों, सांसदों, मंत्रियों की परिलब्धियाँ और अनुलाभ कम से कम 150 से 600 गुना बढ़ गए हैं, जबकि कृषि उपज की कीमतें केवल 15 से 20 गुना बढ़ी हैं। जिस दिन हम खाने-पीने की चीजें छोड़कर महंगाई की तुलना डीजल, पेट्रोल, साबुन, डेटा, डॉलर, सोना, धातु से करने लगेंगे या ये चीजें सस्ती या मुफ्त देने लगेंगे, तभी किसानों को राहत मिलनी शुरू होगी और तभी किसान आत्महत्या क्यों करते हैं, इसका जवाब हमें मिल जाएगा। इसके लिए किसानों के सवालों का फॉर्मूलेशन बदलना होगा। किसानों की आत्महत्या को नजरअंदाज करने के बजाय वास्तविकता को समझना चाहिए। इससे भी बड़ी बात यह है कि ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए कि मुफ्त में कोई चीज लेने पर लेने वाले को शर्म महसूस न हो। यदि यह भावना है कि बिना किसी प्रयास के जीया जा सकता है, तो इसका असर देश के भविष्य पर पड़ेगा। इसलिए मुफ़्त चीज़ों की फ़ौज बनाने का कोई मतलब नहीं है। हमारे शासकों, स्वतंत्र लोगों और करदाताओं को इसके प्रति जागरूक होने की जरूरत है।

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(लेखक- प्रकाश पोहरे)
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