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भारत बेचना है! नहीं, बेच दिया!!

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– प्रकाश पोहरे (संपादक, दैनिक देशोन्नति, दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

एक समय था, जब भारत में मतदाताओं की मानसिकता यह थी कि जिस बेटे को मैंने जन्म दिया वह एकबारगी बदमाश हो सकता है, लेकिन जिस सरकार को मैंने चुना वह बदमाश निकल ही नहीं सकती!

भारत पर कई हमले हुए, मगर करोड़ों लोगों के बलिदान और अनुशासित विपक्ष के माध्यम से हजारों आंदोलनों से इस हमले को विफल कर दिया गया। धर्मनिरपेक्षता का दंभ भरते हुए भारत में संविधान के माध्यम से लोकतंत्र की स्थापना की गई।

पिछले 10 वर्षों में एक चमकदार मीनार पर बना देश अडानी और कुछ पूंजीपतियों को दे दिया गया और हम भारतीय देखते रहे। ठीक वैसे ही जैसे सबसे पहले अंग्रेज हमारे देश में आए और हम भारतीय उत्सुकता से उन्हें देखते रहे थे!

आजादी के 70 साल बीतने के बाद भी यह देश विकास के बड़े-बड़े सपने देख रहा था, करोड़ों की नौकरियाँ कर रहा था, बच्चों को पीठ पर धक्के देकर स्कूल भेज रहा था, बच्चों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा कर रहा था, नौकरी मिलने पर माता-पिता की आँखों में खुशी के आँसू देख रहा था! हम आज भी अर्थव्यवस्था को सात समंदर पार ले जाने का सपना देख रहे हैं और कह रहे हैं कि डॉलर से जीतेगा रुपया…!

जिस देश ने पांच साल में बैंक का पैसा दोगुना कर दिया उसने आसानी से हार मान ली और हम भारतीय देखते रह गए।

अरे, हमारे बैल रोते हैं, जब हम उन्हें बेचते हैं! मालिक भी रोता है, जब वह पैसे लेता है! लेकिन राजनेता देश बेचकर चमकदार वंदनवार की ओर देखते हैं! किसान को खेती में घाटा होता है, तो वह आत्महत्या कर लेता है! लेकिन अगर कोई राजनेता चुनाव हार जाता है, तो वह आत्महत्या नहीं करता! किसान मर जाता है, तो उसके बच्चे अनाथ हो जाते हैं! और यदि कोई राजनेता मर जाता है, तो सहानुभूति की लहर से उसके बेटे स्वतः ही निर्वाचित हो जाते हैं..!
यह घोर विरोधाभास है!

हम भारतीय अब नशेड़ी बन गये हैं, बिल्कुल शराबियों की तरह! अचानक हम जैसे कई लोगों को धर्म की लत लग गई है, और अचानक हमें धर्म-धर्म के खेल पसंद आने लगे हैं, दूसरे धर्मों से नफरत होने लगी हैं, झंडे के रंग में अपनापन महसूस होने लगा हैं, अचानक कुछ पार्टियां पसंद आने लगीं हैं, कभी-कभी उसे माइक पर भरोसा होने लगा है..,

सरकार ने जो समस्याएं बताईं, वो हमें अपनी लगने लगीं, सरकार की हर बात जनता मानने लगीं, जैसा सरकार कहती है, वैसा करने में हमें ख़ुशी महसूस होने लगी, हमें देश में गोदी मीडिया के पत्रकारों पर विश्वास होने लगा, विरोधी हमें मूर्ख लगने लगे, हमें पार्टी का मानसिक गुलाम होने का दिखावा करने में गर्व महसूस होने लगा, सवाल पूछने वाले ही हमें गद्दार या देशद्रोही लगने लगे….

यदि सनातन शिक्षा में इतनी शक्ति है, तो भारत में विदेशी विश्वविद्यालय क्यों प्रारंभ होते हैं? अगर शिक्षा मौलिक अधिकार है, तो स्कूल बंद क्यों? यदि नौकरियाँ विकास पैदा करती हैं, तो निजीकरण क्यों? अगर रेलवे मेरे पैसे से बनी है, तो डिब्बे अडानी के क्यों? एक बार हम सत्ता में आ जाएंगे, तो भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा, फिर नोटबंदी क्यों? यदि ‘सबका साथ, सबका विकास’ हमारा पहला वाक्य है तो फिर धार्मिक कट्टरता क्यों? यदि सत्ता ही बहुजनों के लिए कुंजी है, तो चुनाव में पूंजीवाद को क्यों बंद किया जाए? यदि विरोध लोकतंत्र का ब्रह्मास्त्र है, तो विरोध के लिए झंडे क्यों? सड़क मेरे अपने पैसे से बनी है, तो उस पर जाने के लिए भुगतान क्यों करें? तो आरटीओ पैसे क्यों ले रहा है? और कार खरीदते समय हम किसे उत्पाद शुल्क और जीएसटी का भुगतान करते हैं? सभी भारतीय अपना पेट भरने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, कड़ी मेहनत कर रहे हैं, तो फिर 2 किलो चावल और गेहूं क्यों?

आत्मनिर्भर भारत का सपना दिखाकर किसान को 6 हजार रुपये का उपकार क्यों? पूंजीपति मित्रों का डूबा कर्ज गरीबों के खाते से क्यों काटा जाता है? जो लोग कर्ज नहीं लेते, फिर उनके कंधों पर देश का कर्ज क्यों..? जैविक खेती करने वाले किसानों को रासायनिक उर्वरकों पर सब्सिडी क्यों नहीं दी जाती? क्या सरकार इस पर शोध करेगी कि देश में कैंसर, मधुमेह, रक्तचाप जैसी कई बीमारियाँ क्यों बढ़ रही हैं? या सरकार बस इसी तरह अस्पतालों और दवा दुकानों का विस्तार करती रहेगी? नशा बढ़ रहा है, अपराध बढ़ रहे हैं, इसकी जांच क्यों नहीं हो रहीं? या सरकार सिर्फ पुलिस भर्ती और पुलिस थाने ही बढ़ाती जा रही है? और क्या हम प्रगति के रूप में इसके बारे में मधुर गीत ही गाते रहेंगे?

मूलतः हम फंस गए हैं! हम सुविधा को स्वीकार करने में इतने तेज हैं, जहां भी हमें अपनी शिक्षा का उपयोग करने की आवश्यकता होती है, हम भाग जाते हैं. हम अपनी जाति और समाज से जुड़ी हर चीज का अनुकरण करते हैं, हम तर्क का उपयोग नहीं करते हैं, भले ही हमारी चुनी हुई सरकार गोबर खाती हो, तो भी पूछते हैं- क्यों खाई? हम खुद को यह समझाने की पूरी कोशिश करते हैं कि हमारी पार्टी का झंडा अन्य झंडों से बेहतर है। हम धार्मिक समुदाय में सक्रिय रहकर आनंद लेने लगे हैं, भले ही कोई हमारी थाली में गलत इतिहास परोस दे, हम उसके घास अपने मस्तिष्क में भरने का आनंद लेने लगे हैं। भविष्य में हमारा भारत महान बनने वाला है! हमारी चुनी हुई सरकार दिखा रही है कि हमारा देश विश्वगुरु बनने जा रहा है, लेकिन सवाल है कि आप उसे महान कैसे बनाएंगे? हम ये पूछने की हिम्मत भी नहीं करते।

हम रात को माइक पर भारत के काल्पनिक विकास की कहानियाँ सुनते-सुनते सो रहे हैं। इस धार्मिक नींद में हमारे देश को पूँजीवाद ने मौत की नींद सुला दिया है और हमें इससे कोई आराम नहीं है।

एक समय था जब हमारे पास हवाई अड्डे, रेलवे, बैंक, बीमा, बंदरगाह, विश्वविद्यालय, मोबाइल सेवाएं, रक्षा क्षेत्र, खदानें, बिजली और कई अन्य चीजें थीं, इसलिए इन क्षेत्रों में नौकरियां भी हमारी थीं, लेकिन अब नहीं हैं। लेकिन क्यों नहीं हैं? ये पूछने की अब हमारी हिम्मत नहीं रही। क्योंकि दूसरों को गलत कहने के लिए हममें ज्ञान कि जरूरत होती है, जिसे हम अब भूल चुके हैं। यदि हमारे पड़ोसी हमारे इधर दो इंच दीवार भी बनाते हैं या यदि कुछ पड़ोसी किसान हमारी संपत्ति पर कुछ करते हैं, तो हम कुल्हाड़ी लेकर खड़े हो जाते हैं! लेकिन सरकार ने हमारा सब कुछ बेच दिया, फिर भी हम मूकदर्शक बन कर देख रहे हैं, क्योंकि हमने ही इस सरकार को चुनकर दिया है? इसमें सभी के साथ धोखा हो रहा है। समस्या अपनी हो तो हम उसका हल निकालते हैं, लेकिन समस्या सबकी हो तो समाधान कौन करेगा? यह सवाल उठता है।

सच कहा जाए तो हम अब नपुंसक हो गए हैं। हमारी कलाइयों में अब कोई दम नहीं बचा है। लड़ाई छोड़िए! साधारण विरोध करने का साहस भी हमारे पास नहीं है और समाज की भलाई के लिए, यहां तक ​​कि अपनी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के लिए भी बोलने का समय भी किसी के पास नहीं है!

हमें धर्म की सुइयां चुभने लगी हैं, हम अब किसी फरिश्ते के सपने देखने लगे हैं। हम इतने फिल्मी हो गए हैं कि कोई आएगा और हमारा जीवन सफल कर देगा, इसलिए हम कभी राहुल, कभी उद्धव, कभी मोदी तो कभी राज और पवार की आरती उतारते हैं। हमारे महापुरुष द्वारा स्थापित लोकतंत्र को कैसे कायम रखा जाए? अब उनका सिलेबस चल रहा है या नहीं, हमें इसकी परवाह नहीं है। हम अब विलासितापूर्ण जीवन जी रहे हैं, इसलिए दूसरों के साथ अन्याय हमें काल्पनिक लगने लगा है, हम अपनी जमीन-जायदाद के दस्तावेज और बैक बैलेंस को देखकर सोचते हैं कि देश विकास कर रहा है और दूसरों को पीला राशन कार्ड मिल रहा है, यह विरोधाभास देखकर भी हमें नहीं लगता कि तानाशाही चल रही है। इधर कीमतें बेतहाशा बढ़ रही हैं, लेकिन अमीर होने के कारण हम मौज-मस्ती कर सकते हैं। जबकि कुछ को बुखार आने पर उन्हें स्वयं सहायता समूह से कर्ज लेना पड़ता है। इस कार्य का हम पर कोई दुष्परिणाम नहीं होता। गरीबी, गरीबों की नियति है, हम सब अब इसी पर एकमत हो चुके हैं।

हम अपने रास्ते पर चारपहिया वाहन तो ठीक से चला रहे हैं, लेकिन हमारी धारणा है कि कुछ लोगों के नसीब में सिर्फ पगडंडी ही मिली है।

इन सभी विरोधाभासों का अब हम पर कोई असर नहीं होता, इसलिए वे देश बेच भी दें तो भी हम कोई आपत्ति नहीं जताते…!

कल को नदियाँ, जंगल, पहाड़, बाँध, सड़कें, वन्य जीव, पक्षी भी बेचने निकाले जायेंगे। यदि जरूरत पड़ें, तो अपनी आंतें, आंखें और आंतें भी बेच दें, लेकिन अपने धर्म को खतरे से बाहर निकालें, भले ही पीढ़ियों तक हमारे बच्चों का भविष्य खतरे में रहे, लेकिन उस धर्म को खतरे से बाहर निकालें…. क्योंकि धर्म खतरे में है।

इसे निकालने के लिए 28 प्रतिशत जीएसटी, 34 प्रतिशत आयकर का भुगतान करें. पेट्रोल, डीजल पर 100-125 प्रतिशत वैट दें। कोई भी दो पहिया या चार पहिया वाहन खरीदें, लेकिन उस पर उत्पाद शुल्क का भुगतान करें, जीएसटी का भुगतान करें, आरटीओ कर का भुगतान करें, फास्ट टैग के माध्यम से अग्रिम भुगतान करके टोल पोस्ट पर टोल टैक्स का भुगतान करें, यदि यह भुगतान करते समय आप दिवालिया हो जाते हैं, तो संपत्ति बेच दें और पंजीकरण करते समय भी कर का भुगतान करें। क्योंकि…. मेरे भाइयों-बहनों, हमको देश को गिरवी नहीं रखना है, बल्कि देश बेचना ही है!

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– प्रकाश पोहरे
(संपादक, दैनिक देशोन्नति, दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
संपर्क : 98225 93921
2prakashpohare@gmail.com

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