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मुफ्त की योजनाएं या ‘जीवंत’ जीवन…!

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

पिछले सप्ताह यानी 14 जुलाई 2024 को मैंने इसी ‘प्रहार’ कॉलम में ये – ‘क्या आप जंगली सूअर बनना चाहते हैं..?’ ये सवाल पूछा था। मुफ़्त में लेने-पाने की आदत लोगों को किस तरह परतंत्रता की ओर ले जाती है? इसके लिए जंगली सूअरों को कैसे पकड़ा जाता है, इसकी कहानी मैंने बतायी थी। उससे भी पहले, 9 जुलाई, 1996 को यानी 28 साल पहले भी मैंने यही स्टैंड रखा था। उस ‘प्रहार’ में मैंने कहा था- ‘भारत एक मुफ्त-प्रधान देश है!’ निःसंदेह, मुफ्तखोरों की आबादी जितनी अधिक बढ़ेगी, लाभार्थियों की बढ़ती संख्या के लिए सरकार को उतनी ही नई रेवड़ियाँ उपलब्ध करानी होंगी! देश में कुछ और बहुसंख्यक सामाजिक तत्व ‘हमें पिछड़ा मानो’ के लिए आंदोलन करेंगे। हालाँकि, ये आंदोलन ‘क्रांति’ के लिए नहीं, बल्कि ‘ग़ुलाम’ बनने के लिए होंगे।

इसीलिए मैंने पिछले सप्ताह के लेख में कहा था कि गुलामों पर उनकी विशाल संख्या के बावजूद मुट्ठी भर लोगों का शासन था। क्योंकि, गुलामों को कभी भी अपनी ताकत का अंदाज़ा नहीं लगाने दिया जाता था। पहले के समय में गुलामी पीठ पर कोड़े मारकर की जाती थी, अब गुलाम बनाने की तकनीक बदल गई है। पोषण के नाम पर किंडरगार्टन (नर्सरी) से ही मध्याह्न भोजन के रूप में सिर्फ खिचड़ी खिलाई जाती है। लोगों से वादे किए जाते हैं। सौ यूनिट बिजली मुफ्त, राशन अनाज मुफ्त, तीर्थ यात्रा मुफ्त, शौचालय मुफ्त, आवास योजना में निरर्थक छूट, ऋण माफी की मांग आदि। मुझे उस लेख पर जबरदस्त प्रतिक्रिया मिली। मैंने सोचा था कि सरकार की मुफ्त योजनाओं का विरोध करने पर लोग मुझ पर टूट पड़ेंगे, लेकिन हुआ इसका उलटा। मुझे यह कहते हुए गर्व है कि हमारे भारतीय लोग वास्तव में बुद्धिमान हैं। मुफ़्त कोई नहीं चाहता। बल्कि सबकी राय एक ही है कि ‘हमें भीख नहीं, पसीने की कमाई चाहिए..!’

सरकार ने राशन, लाडली बहन, लाडला भाई, कर्ज माफी के वादे, किसान सम्मान निधि, अनाज, सिलेंडर, तीर्थ यात्रा सबकुछ मुफ्त दिया है। दरअसल, हर कोई सम्मानजनक जिंदगी जीना चाहता है। चाहे वह आपका पालतू कुत्ता ही क्यों न हो…! यदि आप उसके साथ अभद्र व्यवहार करेंगे, तो वह आपके घर की रोटी नहीं खाएगा। तो, मुफ़्त कौन चाहता है? जो लोग यह मांगते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो कभी समृद्ध थे।

अगर हम कर्जमाफी का सरल उदाहरण लें तो पता चलेगा कि आज वही किसान कर्जमाफी मांग रहा है, जो कभी बैंक में जमा राशि रखने वाला किसान था। समय के साथ, हरित क्रांति ने उनकी आर्थिक हालत को बाधित कर दिया और बैकों में धन जमा करने वाला किसान कर्जदार हो गया! बेशक, किसानों की अर्थव्यवस्था कृषि उपज की कीमत पर निर्भर करती है। देश के हालात को छोड़ दें और महाराष्ट्र की बात करें तो कृषि उपज के लगातार बंजर होने और दाम न मिलने के कारण न सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में किसानों की आत्महत्या का दौर जारी है। पिछले दस वर्षों में महाराष्ट्र में लगभग सभी पार्टियां सत्ता में आई हैं। महाराष्ट्र में तीन प्रमुख (उनमें से दो ‘विभाजित’) राजनीतिक दल मौजूदा सरकार में शामिल हैं। इनमें ऐसे नेता शामिल हैं, जिन्होंने राज्य की कृषि व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, ग्राम कार्ट का अध्ययन किया है।

उदाहरण के तौर पर, इस वर्ष कपास और सोयाबीन के उत्पादन में गिरावट के बावजूद, बाजार की कीमतें कम थीं। पिछले साल 12 से 14 हजार रुपये प्रति क्विंटल कपास का भाव था। सोयाबीन 8,000 से 10,000 रु.था। लेकिन इस साल कपास की कीमत 7 से 8 हजार और सोयाबीन की कीमत 4 से 4.5 हजार के बीच ही रही। इसलिए उत्पादन कम हुआ और कीमत भी कम ही रही। जबकि खाद, बीज, कीटनाशक, पाइप, डीजल, मजदूरी की लागत दोगुनी बढ़ गई है, किसानों का नुकसान और जीवनयापन की लागत भी बढ़ गई है।

यह एक कटु सत्य है कि मौत के कगार पर खड़ा आम आदमी या तो असहाय हो जाता है, या आत्महत्या जैसा भयानक कदम उठा लेता है, लेकिन यह बेबसी सरकार की नीतियों के कारण होती है। फिर, ऐसे असहाय लोगों के लिए मुफ्त भोजन, मुफ्त बिजली, कर छूट, कृषि सब्सिडी, कल्याणकारी योजनाएं, मुफ्त दवाएं, मुफ्त गैस सिलेंडर की घोषणाएं की जाती हैं और बदले में धीरे-धीरे उनकी आजादी छीन ली जाती है। अकारण भोग की इन आदतों को विकसित करके, लोगों को वस्तुतः गुलामी में जीने के लिए मजबूर किया जाता है!

एकदम ताज़ा उदाहरण….. पड़ोसी मध्य प्रदेश में बीजेपी की सभी सीटें ‘लाडली बहन’ योजना के कारण चुनी गईं, तो अब महाराष्ट्र में भी आगामी विधानसभा में वोटों की भरपाई के लिए ऐसी ही योजना ‘लाड़की बहिन’ नाम से लाई गई। इसके तहत प्रदेश की महिलाओं को ‘रेवड़ी’ बांटी जाएंगी। घोषणा के अगले ही दिन तुरंत जीआर भी निकाल दिया गया। यह उसी प्रकार की मुफ्त संस्कृति है।

1996 में लिखे एक लेख में मैंने कहा था कि यह महत्वपूर्ण नहीं है कि मुफ्त में क्या दिया जाता है, बल्कि यह अधिक महत्वपूर्ण है कि मुफ्त में कुछ तो दिया जाता है! हमारे देश में ग्रेच्युटी की महान परंपरा प्राचीन काल से ही रही है। दान हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे पूर्वजों का मानना ​​था कि यह स्वर्ग प्राप्त करने का एक निश्चित तरीका है, चाहे वह जन्म हो या मृत्यु, चाहे विवाह हो या तेरहवी, ब्राह्मण को दान देना केंद्र में नहीं था यह कहना संभव है कि पूर्वजों को स्वर्ग प्राप्त हुआ होगा या नहीं, परंतु निश्चित रूप से जिनको स्वर्ग प्राप्त हुआ होगा, उन्हें स्वर्ग प्राप्त करने में आनंद आएगा!

मुफ्तखोरी को सरकारी संरक्षण केवल आज की बात नहीं है। राजाश्रय भी प्राचीन काल में दान से युक्त था। बड़े-बड़े राजमहलों में मुफ्तखोरों की सेनाएँ हुआ करती थीं। पेशवा काल में दान की अभूतपूर्व प्रतिष्ठा थी। हमने लंबे समय से ब्राह्मण मण्डली द्वारा अपना दल भरने, ऊपर से भव्य दक्षिणा लेने और मेज़बान को मुक्त रूप से आशीर्वाद देने के लिए प्रसन्न मन से आगे बढ़ने की प्रथा विकसित की है। परोपकार के बीज हमारी परंपरा में हैं। अगर किसी भिखारी को सिर्फ भीख मांगने के बजाय काम करके कमाने के लिए कहा जाए, तो भी काम नहीं चलेगा। मुफ़्त में जो मिलता है, उसे न ख़रीदने की हमारी मानसिकता हमारी बढ़ती आबादी के साथ-साथ खाने वालों की संख्या में भी इज़ाफ़ा करती है। काम करने वाले हाथ नहीं बढ़ते। हालाँकि, किसी को भी इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि हमारी पूरी पीढ़ी इसी रवैये के कारण गुलाम बनती जा रही है!

तो हम गुलाम कैसे बनते हैं? इस मुख्य मुद्दे पर आएं या नहीं? मुफ्त में मिल रहा है ना, तो उसे छुप-छुप कर खाइए। चिंता मत कीजिए, क्योंकि महंगाई बढ़ गई है। ‘माई-बाप सरकार’ तीन रुपये किलो चावल, पांच रुपये किलो गेहूं दे रही है और तुम मूर्खों की तरह रोजगार क्यों मांग रहे हो! आप में से कुछ लोग कहेंगे, पंजाब में तो बिजली मुफ़्त मिल रही है। वहां सरकार और क्या मुफ़्त दे रही है? ये सब आपको भी मिलेगा। अनाज, बिजली, त्योहारों पर विशेष राशन, मुफ्त एसटी, रेल यात्रा सब कुछ मिलेगा। इसलिए कृपया शिक्षा, नौकरी, रोजगार और किसान कृषि उपज का दाम ना मांगें! मूलतः कोई भी सरकार रोज़गार, शिक्षा जैसी ‘मामूली’ चीज़ें उपलब्ध कराने में समय बर्बाद नहीं करना चाहती। इसलिए अगर आपको सरकार से कुछ मांगना है, अनुदान मांगना है, कर्जमाफी मांगना है, भीख मांगना है तो गारंटी के साथ मिलेगा। क्योंकि यह सरकार ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा को साकार करने के लिए ही सत्ता में आई है, …है न? इसीलिए हम यह सोचने लगे हैं कि जो हमें मुफ़्त में गुलाम बनाते हैं, वे ही हमारे ‘रक्षक’ हैं।

सरकार के मुताबिक, ‘नए भारत’ में गरीब, महिलाएं और पिछड़ा वर्ग ही मुख्य जातियां बची हैं। इनमें से किसी भी जाति में शामिल होकर अपना ‘कल्याण’ करना आपके लिए आसान है। आपको केवल सरकार की ‘डिलीवरिंग स्टेट’ छवि की परवाह है। यह सोचकर मूर्ख मत बनिए कि इन प्रमुख जातियों में बंटे मतदाताओं के हित के लिए किसानों की जान की बलि दी जा रही है। उन्हें उनकी उत्पादन लागत भी नहीं मिल रही है। अरे, किसान तो मिट्टी में काम करता है, अगर उसे वापस मिट्टी में धकेल दिया जाए तो क्या फर्क पड़ने वाला है? सरकार इस मुफ्त अनाज योजना के जरिए शायद यही कहना चाहती है।

28 मई, 2023 को मैंने इसी विषय पर एक और ‘प्रहार’ लिखा था। उसमें भी मैंने कहा था कि जिस दिन देश की जनता मुफ्त की चीजों को नकारने का साहस दिखा देगी, उस दिन इस मुफ्त की चीजों के खिलाफ पहला कदम उठाया जाएगा। अब सवाल सिर्फ ये है कि क्या कोई राजनीतिक दल इसके लिए पहल करेगा? मूल मुद्दा यह है कि लोग इस बारे में कितनी समझ रखेंगे? ऐसा कहा जाता है कि ‘अब हवाएं ही करेंगी रोशनी का फैसला, जिस दिये में जान होगी वो दिया रह जाएगा…’

वर्तमान में वैश्विक हवा के रूख को पहचानें और उसके लिए तैयारी करें। निर्णय आपका है- ‘क्या आप मुफ़्त योजनाओं से मिटना चाहेंगे, या कड़ी मेहनत करके ‘जीवंत’ जीवन जीना चाहेंगे”…!
नमस्कर…!!!

लेखक : प्रकाश पोहरे

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