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तानाशाही के खिलाफ सभी को एकजुट होने की जरूरत

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–प्रकाश पोहरे (संपादक, मराठी दैनिक देशोन्नति, हिन्दी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

लोगों को अपने दैनिक जीवन में कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कोई भी शासक इस बारे में कुछ नहीं कहता। लोग चुनावों को अपनी आंखों के सामने रखते हुए वोटों के प्रवाह को बदलने के लिए सभी राजनेताओं के इरादों से अवगत हैं। लगातार गड़बड़ी होगी, गैर-मुद्दे होंगे और लोगों की ऊर्जा बर्बाद होगी, यही पैटर्न चलता रहेगा और खासकर जब चुनाव आएंगे, तो नफरत के मुद्दे सामने आएंगे।

तानाशाही राज्यसत्ता के बारे में सोचें, तो लगता है कि मोदी, शी जिनपिंग (चीन), व्लादिमीर पुतिन (रूस), रेसेप एर्दोगान (तुर्की) जैसे एकाकी नेताओं के साथ जाकर बैठ गए हैं! यानी, उन्होंने व्यक्तिगत आकर्षण और बेईमान प्रशासन के माध्यम से दो बार सत्ता हथिया ली। सत्ता का लापरवाह केंद्रीकरण, अब मोदी सरकार की विशेषता सर्वविदित हो चुकी है।

उपर्युक्त नेताओं में से किसी के भी देश में आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़ नहीं है। इन सभी ने सत्ता में आते ही संवैधानिक बदलाव किए और विपक्ष की आवाजों को खामोश कर दिया। ताकि वे फिर कभी न उठ सकें। मोदी भी ऐसा ही करते हैं, लेकिन उनका अंतर यह है कि अब वे लोकतंत्र में मुक्त वातावरण में मतदान की अनुमति देते हैं, लेकिन वास्तविकता वही है। उदाहरण के लिए नोटबंदी के दौरान, दिन-रात एटीएम की कतारों में खड़े रहने और उसके बाद मची भगदड़ में कई लोगों की मौत हो गई थी। कोरोना काल में 24 घंटे के नोटिस लॉकडाउन में न सिर्फ ‘मजदूरों’ बल्कि ‘बुद्धिजीवियों’ की भी नौकरी चली गई। उनका वेतन कम कर दिया गया। हाथों पर पेट लिए हजारों मजदूर तब तक गृहस्थी की ओर चल पड़े, जब तक कि उनके पैरों के टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गए। जो अपनी बीवी-बच्चों के साथ सफर करते-करते रास्ते में बैठ गए, जिनका एक्सीडेंट हो गया, जो रास्ते में ही मर गए, रेल की पटरी पर सो गए, कई लोग ट्रेन बंद समझकर नींद में ही मर गए, फिर भी इन ‘मजदूरों’ में जो घर पहुंचे, उनमें से कई को उनके ही ग्रामीणों ने मार डाला और गांव की सीमा पर रोक दिया।

दमनकारी कृषि कानूनों के खिलाफ 13 महीने तक किसानों ने दिल्ली की सीमा पर धरना दिया। 700 से ज्यादा किसानों की मौत सरकार की नीति के कारण उन पर यह दुर्भाग्य थोपा गया, लेकिन सरकार ने उनकी कोई परवाह नहीं की।

कुल मिलाकर मोदी सरकार सभी क्षेत्रों में बुरी तरह विफल रही है और अक्षम हो गई है। उज्ज्वला, उदय, जनधन, स्मार्ट सिटी, स्टार्ट अप, जलयुक्त शिवार, डिजिटल इंडिया जैसी योजनाओं का सार क्या है? किसानों की आत्महत्या बढ़ी, आजादी के बाद से बेरोजगारी दर सबसे ज्यादा हो गई, महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ी, आदिवासियों को उनके अधिकारों से वंचित किया गया, भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ, बल्कि इतना बढ़ा है, जितना पहले कभी नहीं बढ़ा था। किसी भी सरकारी दफ्तर में पैसा खाना बंद नहीं हुआ है। नोटबंदी और जीएसटी से बिगड़े हालात को सभी मतदाता स्वीकार कर रहे हैं।

राष्ट्रवाद, आतंकवाद, पाकिस्तान, सुरक्षा, हिंदू-मुसलमान, ये मुद्दे खाने-पानी के मुद्दों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं। संघ परिवार के विश्लेषक अब कह रहे हैं कि वोटिंग और चुनाव को लेकर लोगों का नजरिया बदल गया है। कुछ चापलूस कहने लगे हैं कि भारत को मोदी ने मजबूत किया है। मीडिया की सुर्खियों पर भी गौर करें, तो– घर में घुसके मार दिया, मोदी ने दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाई और देश जल्द ही एक महाशक्ति बन जाएगा, जैसे शीर्षकों से मीडिया सराबोर है। यानी सभी भौतिक समस्याओं ने शुद्ध, निराकार भावना के आगे घुटने टेक दिए हैं। वोटरों ने मोदी का समर्थन करते हुए तय किया कि ‘पेट में पानी भले ही न जाए, लेकिन देश को तन में पानी दिखाते रहना चाहिए’! अनुच्छेद 370 हटाकर मोदी ने पाकिस्तानी नागरिकों को इतना सबक सीखा दिया है कि बस्स! इसलिए इतने वोट बीजेपी को गए हैं। इसका तात्पर्य यह कि मुसलमानों को वश में नहीं थे, तो उन्हें वश में किया गया। संक्षेप में, जब एक निर्भीक, शक्तिशाली, आक्रामक, समझौता न करने वाला नेता संघर्ष कर रहा है, तो हम भूख, बेरोजगारी, आत्महत्या, उत्पीड़न, अभाव के व्यर्थ के मुद्दों पर क्यों बात करें? अधिकतर वोटरों ने यही सोचा होगा..!

अब भी नौटंकी का कोई अंत नहीं है। भारत के संप्रभु धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के संविधान द्वारा स्थापित नए संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर संसद भवन में साधुसंत (?) (असल में गोसावादी) बेंचों पर बैठे हुए, ‘भारत अब लोकतंत्र नहीं रहा’, तो क्या एक अघोषित संवैधानिक साम्प्रदायिक या इसका भद्दा शब्द ‘हिंदुराष्ट्र’ बन गया है? जागरूक और सुविज्ञ नागरिकों के मन में यह सवाल उठना बहुत जरूरी है … उसके बाद जहां-जहां होम-हवन हुआ, वहां देश के प्रधानमंत्री न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर खुद दंडवत करते नजर आए।

यह समारोह रविवार, 28 मई 2023, सावरकर जयंती के दिन हुआ। उससे एक दिन पहले 27 मई को पंडित नेहरू की पुण्यतिथि थी और उससे एक दिन पहले 26 मई 2023 को मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री नौ साल पूरे किए थे। तथ्य यह है कि नेहरू ने सरकार की भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव रखी, हालांकि संघ और भाजपा इसे बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, जबकि दुनिया भर में मान्यता प्राप्त है। इसके विपरीत सावरकर सरकार की लोकतांत्रिक व्यवस्था में कितना विश्वास करते थे, यह शोध का विषय हो सकता है। यदि वास्तव में देश के नए संसद भवन का उद्घाटन निष्पक्ष रूप से करना होता, तो उस दिन करना उचित होता, जिस दिन मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में नौ वर्ष पूरे किए थे। लेकिन यह सावरकर जयंती के दिन 28 मई को जानबूझकर किया गया। वहीं करीब 18 हजार करोड़ रुपये की यह ग्रैंड विष्ठा परियोजना और इसमें से 3000 करोड़ रुपये का खर्च! तीन साल में इस महंगे संसद भवन के निर्माण का श्रेय मोदी को देने की होड़ में थे न्यूज चैनल और अन्य मीडिया।

दरअसल संसद पूरे देश के लिए होती है और जैसे संसद में सत्ताधारी दल होता है, वैसे ही विपक्षी दल भी होते हैं। इसलिए यदि कोई नया भवन बनाना होता, तो विपक्षी दलों के नेताओं से उस पर चर्चा करना, नए भवन की योजनाओं, उसकी सुविधाओं आदि पर चर्चा करना संसदीय परिपाटी और परंपरा का हिस्सा होता। लेकिन कुछ नहीं किया गया। केवल मोदी के दिमाग में आया और उन्होंने अमित शाह और केंद्र में शहरी विकास मंत्री रहे पूर्व राजनयिक अधिकारी हरदीप सिंह पुरी को साथ लेकर इस परियोजना को पूरा किया। भाजपा जानबूझकर ‘सेंगोल’ का मुद्दा तब सामने लाई, जब विपक्ष ने नए संसद भवन के उद्घाटन को लेकर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को आमंत्रित न करने पर सरकार की आलोचना शुरू कर दी। सेंगोल – जिसका अर्थ है राजदंड, (वास्तव में धर्मदंड) भी भाजपा द्वारा जानबूझकर उठाया गया मुद्दा था। देश के गृहमंत्री हमेशा कहते हैं, ‘सिर्फ क्रोनोलॉजी समझिए’। यदि हम इन वचनों को व्यवहार में लाते हैं, तो हम क्या पाते हैं?

वास्तव में, हमारे संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों का प्रमुख होता है। उपराष्ट्रपति का भी यही हाल है। उपराष्ट्रपति राज्यसभा का अध्यक्ष होता है। दिलचस्प बात यह है कि संसद के इस नए भवन के उद्घाटन के लिए जो निमंत्रण-पत्र भेजे गए, उनमें राष्ट्रपति का नाम नहीं था और राज्यसभा के सदस्यों को जो निमंत्रण पत्र भेजे गए थे, उनमें भी उपराष्ट्रपति का नाम नहीं था। लेकिन विपक्षी दलों ने इस बात पर विवाद खड़ा कर दिया कि संसद के नए भवन के उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को क्यों नहीं बुलाया गया? और उन्होंने इस कार्यक्रम का बहिष्कार करने का फैसला किया। उसके बाद ‘सेंगोल’ मामले को उठाकर विवाद को एक अलग दिशा देने का मोदी-शाह की जोड़ी का आम प्रयोग एक बार फिर देश को देखने को मिला। सरकार को नमन करने वाली मीडिया ने इस प्रयोग को खूब प्रचार देकर मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने की मोदी-शाह की कोशिशों में अपना योगदान दिया।

इस अवसर पर सरकार द्वारा सभी समाचार चैनलों को एक वीडियो प्रदान किया गया, जिसमें दिखाया गया है कि 1947 में अंग्रेजों द्वारा भारत को स्वतंत्रता देने का निर्णय लेने के बाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और नेहरू के सहयोगी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से उस प्रक्रिया के बारे में पूछा, जिसका पालन किया जाना था। तब राजगोपालाचारी ने कुछ लोगों से सलाह ली और पंडितजी को बताया कि दक्षिण में चोल शासन के दौरान, जब एक नए राजा की ताजपोशी होती थी, तो उसे यह सेंगोल दिया जाता था– जिसका अर्थ है धर्मदंड या राजदंड! तदनुसार, राजदंड माउंटबेटन को भेजा गया और उन्होंने इसे नेहरू को सौंप दिया। लेकिन बाद में नेहरू ने इसे इलाहाबाद के संग्रहालय में भिजवाकर रखवा दिया। यह कहानी सरकार द्वारा जारी टेप में बताई गई है। दरअसल, राजगोपालाचारी और महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी ने इस पूरे घटनाक्रम को खारिज कर दिया है। राजमोहन गांधी राजगोपालाचारी के जीवनी लेखक भी हैं और उन्होंने संबंधित लेख में कहा है कि, ‘मैंने राजगोपालाचारी की जीवनी लिखते समय जितने भी दस्तावेज़ देखे हैं, उनमें कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है।’

चेन्नई के दैनिक ‘द हिंदू’ द्वारा प्रकाशित समाचार के अनुसार 14 अगस्त 1947 को तमिलनाडु में एक धर्मपीठ के प्रमुख और उनके सहयोगियों ने दिल्ली जाकर नेहरू को उनके आवास पर जाकर नेहरू को यह सेंगोल उनके माथे पर भस्म लगा कर शाल ओढ़ाकर दिया था। उस सरकार द्वारा जारी टेप में यह भी कहा गया था कि इस सेंगोल को विशेष रूप से उस समय मद्रास से भारत सरकार द्वारा दिल्ली लाया गया था। लेकिन दरअसल, दैनिक ‘द हिंदू’ ने उस समय की एक तस्वीर भी प्रकाशित की है, जब उस धर्मपीठ के प्रमुख और अन्य सहयोगी इस राजदंड के साथ मद्रास सेंट्रल रेलवे स्टेशन से नई दिल्ली के लिए रवाना हो रहे थे। भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में नेहरू की आलोचना करते हुए कहा कि नेहरू ने भारतीय संस्कृति में सेंगोल यानि राजदंड के महत्व पर विचार किए बिना इसे चलने वाली छड़ी (वॉकिंग स्टिक) के रूप में इस्तेमाल किया और बाद में इसे इलाहाबाद के संग्रहालय में भेज दिया। नेहरू के नाम का उल्लेख किए बिना नए संसद भवन का उद्घाटन करने के बाद अपने भाषण में मोदी ने वही आरोप दोहराया। मेरा मतलब है कि देखिए सरकार खुद कितनी गलत खबर फैलाती है, जिसे आज के दौर में ‘फेक न्यूज’ कहा जाता है। इस तरह के धोखे के पीछे सिर्फ एक ही मकसद यह बताना था कि कांग्रेस और अन्य पार्टियों द्वारा उद्घाटन कार्यक्रम का बहिष्कार करना कितना गलत है! हालांकि, सरकार ने इस बात का खुलासा नहीं किया कि नए संसद भवन के उद्घाटन के लिए राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति को क्यों नहीं बुलाया गया? दूसरे शब्दों में अप्रत्यक्ष रूप से यह स्वीकार किया गया कि विपक्षी दलों की आपत्ति सही थी।

भाजपा सांसद बृजभूषण सिंह की गिरफ्तारी को लेकर 23 अप्रैल 2023 से जंतर-मंतर पर पहलवान लड़कियां व उनके समर्थक धरना दे रहे हैं। इन खिलाड़ियों का आरोप है कि बृजभूषण ने उनका यौन शोषण किया। लेकिन दिल्ली पुलिस उनकी साधारण-सी शिकायत दर्ज करने को तैयार नहीं थी। अंत में सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस लिया और शिकायत दर्ज करनी पड़ी। एक ओर जहां नए संसद भवन का उद्घाटन हो रहा था, वहीं दूसरी ओर पूरे विश्व ने देखा कि देश का नाम रोशन करने वाली महिला खिलाड़ी, जो 40 दिनों से न्याय के लिए धरने पर बैठी थीं और उसी दिन पुलिस उन्हें घसीटकर दूर ले जा रही है।

तब प्रधानमंत्री मोदी ने नई संसद में कहा, ‘यह सिर्फ एक इमारत नहीं है, इस नई संसद में 140 करोड़ लोगों की आकांक्षाएं और सपने समाहित हैं। यह भारत के अटूट संकल्प के बारे में दुनिया को एक शक्तिशाली संदेश देती है’। भाजपा के राज्य में मुस्लिम महिला का बलात्कार करने वाले अपराधी भाजपा के नेता या कार्यकर्ता हैं, इसलिए वे बरी हो जाते हैं, उन्हें सम्मानित किया जाता है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट सवाल करता है। एक सांसद के खिलाफ सिर्फ इसलिए यौन उत्पीड़न का मामला दर्ज नहीं किया जाता है कि वह भाजपा का सांसद है, बल्कि वह संसद के उद्घाटन में डटकर चलता है। इससे मोदी, दुनिया को क्या संदेश दे रहे हैं? यहां तक ​​कि मोदी का महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण भी शुरू से बहुत मार्मिक नहीं रहा है। दुर्भाग्य से कहना होगा कि बीते रविवार को यह फिर से दिख गया।

अंत में, संविधान को मंजूरी मिलने से पहले, डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने अपने आखिरी भाषण में कहा था कि ‘अगर कोई इस संविधान के ढांचे को जस का तस रखकर और संसदीय और प्रशासनिक प्रक्रियाओं को हवा में छोड़कर शासन करता है, तो वह भारत जैसे देश पर एक तानाशाह के रूप में शासन कर सकता है।’ आज हम यही अनुभव कर रहे हैं। मोदी अन्य पार्टी के नेताओं की तरह नहीं हैं और उनका उत्थान भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ है। वे कभी संघ के कट्टर प्रचारक थे और उन्होंने सत्ता में आते ही 2001 से 2014 तक गुजरात में इसे कैसे लागू किया, इसका अनुभव देश को अच्छी तरह से है। तथाकथित ‘गुजरात मॉडल’ वास्तव में सत्ता के केंद्रीकरण और जांच तंत्र के दुरुपयोग और सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को कमजोर करने का प्रदर्शन था। इसलिए 2014 से 2023 तक मोदी के देशव्यापी एकाधिकार का विरोध करने के लिए सभी को एकजुट होने और कमर कसने की जरूरत है।

–प्रकाश पोहरे
(संपादक– मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
संपर्क : 98225 93921
2prakashpohare@gmail.com

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