

भारत कृषि प्रधान देश है। खेती से लेकर अनाज भंडारण तक महिलाएं इसमें बहुत बड़ी भूमिका निभाती हैं। सिक्किम के पूर्वोत्तर राज्यों में जैविक खेती पर महिलाओं का बड़ा प्रभाव है। वहां खेती में ज्यादातर श्रम पुरुष करते हैं, जबकि महिलाएं अनाज की कटाई, भंडारण और विपणन का काम करती हैं। मणिपुर के इंफाल में एक बड़ा अनाज बाजार है, जिसे केवल महिलाएं चलाती हैं। दुर्भाग्य से, मशीनीकरण के माध्यम से फसल पैटर्न में बदलाव के कारण हमारी एक समय की महिला प्रधान कृषि, अब पुरुष प्रधान हो गई है। पहले ख़रीफ़-रबी के दौरान खेतों में 30-40 तरह की फ़सलें उगाई जाती थीं, खेत से खलिहान तक और वहाँ से बैलगाड़ी के ज़रिए घर तक। दरवाजे के सामने खड़ी बैलों की जोड़ी और अनाज की गाड़ी का घर की महिलाएं आरती उतार कर स्वागत करती थीं। जैविक पारंपरिक खेती को छोड़कर रासायनिक खेती, यानी एक प्रकार की पूंजी निवेश वाली एकल फसल खेती को अपनाने के बाद, आज खेतों में काम करने वाले लोग कर्ज और तनाव के बोझ से दबे पके अनाज के ट्रैक्टरों को सीधे शहर के बाजार में ले जा रहे हैं और उन्हें गिरती कीमतों में बेचकर कर्ज बढ़ा रहे हैं।
पारंपरिक अनाज नष्ट हो गए, खेत में गोठा नहीं है। यहां तक कि घर में भी गाय नहीं है। खेत बंजर हो गए हैं, बांध कट गए हैं और कृषि में महिलाओं का महत्व कम हो गया है। रासायनिक उर्वरकों के अत्याधिक उपयोग से कृषि का मरुस्थलीकरण हो गया है। भूजल का दोहन बढ़ गया है, कुएं सूख गए हैं, बांधों पर पेड़ों के नीचे प्रबंधकों द्वारा लाया जाने वाला नाश्ता और मटकों में ठंडा होने वाला पानी भी नष्ट हो गया है, स्वास्थ्य खराब हो गया है, स्वस्थ ग्रामीण जीवन विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त हो गया है!
जैसा कि महात्मा फुले ने शिक्षा का महत्व समझाते हुए कहा था-
विद्या बिना मति गई,
मति बिना नीति गई,
नीति बिना गति खो गई,
गति बिना वित्त गया…
वित्त बिना शूद्र थक गया!
एक अविद्या ने इतना अनर्थ कर दिया….!
इसी आधार पर……
पारंपरिक खेती वित्त के बिना खत्म हो गई,
वित्त के बिना कर्ज में वृद्धि हो गई,
कर्ज के कारण दिमाग भ्रष्ट हो गया,
भ्रष्ट बुद्धि होने से लाचारी आ गई।
लाचारी ने विभिन्न व्यसनों को जन्म दिया,
नशे से बीमारी आई और खर्च बढ़ गए,
ख़र्च बढ़ने से अधिक कर्ज़ बढ़ गया,
कर्ज के कारण जमीन बिक गई, सुख छिन गया,
सुख छिनने से आत्महत्याएं बढ़ गईं,
एक गलत कदम की वजह से इतनी बड़ी तबाही हो गई!
सरकार ने खेती के गलत रास्ते दिखाए,
सरकार के लोगों ने 303 के 240 कर दिए….
लेकिन गलती से कोई सबक लेगी, वो सरकार कैसी?
‘गिरे तो भी टांग ऊपर’…. अब शासकों की यही संस्कृति बन गई है।
क्योंकि सत्ता जनता की भलाई के लिए नहीं, बल्कि ’50 खोके एकदम ओके’ की खातिर है!
अब यह सरकार, फिर से पूर्ण सत्ता हासिल करने के लिए ऐसी ही मधुर योजना ले आई है।
‘लाड़ली बहन’ और ‘लाड़ला भाई’ नामक योजनाओं ने वर्तमान में इतनी लोकप्रियता हासिल कर ली है कि वे हर शहर में चर्चा का विषय बनी हुई हैं। लेकिन ये ‘लाड़ली बहन’ और ‘लाड़ला भाई’ क्या ‘रेवड़ी संस्कृति’ नहीं है? मध्य प्रदेश में बीजेपी ने इस फंडे का इस्तेमाल चुनावों में किया और चुने जाने के बाद इस योजना को बंद कर दिया। महाराष्ट्र में भाजपा के नेतृत्व वाली शिंदे सरकार ने यही मुद्दा उठाया. सख्त नियमों के बावजूद भी अचानक दो करोड़ महिलाओं को 100 प्रतिशत अंक मिले और वे ‘लाड़ली बहनें’ बन गईं। 1500 प्रति माह और उसमें 500 रुपए प्रति वर्ष की वृद्धि! अगर अगले पांच साल तक यही सरकार रही, तो इस रेवडी आवंटन पर करीब तीन लाख करोड़ रुपये खर्च हों जाएंगे। यह कुछ-कुछ ‘इसका बोझ उसके कंधे पर’ जैसा है। निस्संदेह आसमान से कुछ भी मुफ्त में नहीं गिरता। इसके लिए जो धन चाहिए, वह 5-6 प्रतिशत ईमानदार करदाता और अप्रत्यक्ष कर देने वाले करोड़ों मेहनतकश लोग महंगाई के रूप में दे रहे हैं।
‘सरकारी खजाने से मुफ्त में पैसा बांटो और वोट लो!’ समझदार लोगों को अब यह चाल समझ में आ गई है। किसी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मतदाताओं को रिश्वत देने का विचार इतने आकर्षक नामों के साथ आएगा, लेकिन अब शासक वर्ग ऐसे दिखावे पर ही भरोसा करने की मानसिकता में है। एक गरीब और बेरोजगार भारत, जहां कम बुनियादी ढांचा है, एक राजनीतिक व्यवस्था जो ऊपर से एक स्वतंत्र मानसिकता का निर्माण करती है, इसी से हम देश का कल्याण समझते हैं। हैरानी की बात यह है कि न तो चुनाव आयोग और न ही देश की न्याय व्यवस्था ने इस पर कोई आपत्ति जताई है।
इस साल के बजट में केंद्र सरकार की कृषि योजना ‘लखपति दीदी’ के लिए करीब तीन लाख करोड़ रुपये आवंटित किये गये हैं। पिछले 10 साल में एक करोड़ महिलाएं लखपति दीदी बनी हैं, लेकिन पिछले दो महीने में सरकार का कहना है कि 11 लाख और लखपति दीदी बनी हैं। अगर यह सच है, तो कृषि विज्ञान केंद्र के माध्यम से अन्य किसान महिलाओं को इसकी यशोगाथा क्यों नहीं दिखाई जा रही है?
‘लखपति दीदी’ न केवल नवीनतम तकनीक से खेती करती हैं, बल्कि यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि वह खेत की मालिक होती हैं। जैविक खेती, पॉली हाउस में शुद्ध जैविक सब्जियों की खेती, पूर्ण जैविक खेती, कृषि उपज के प्रसंस्करण, फलों के निर्यात, फलों और सब्जियों के प्रसंस्करण के माध्यम से भी लखपति दीदियों को आसानी से तैयार किया जा सकता है। सरकार ऐसा क्यों नहीं कर रही है? इसी तरह ‘लाड़ली बहन’ योजना के लिए दो करोड़ आवेदन स्वीकृत किये गये हैं। इसमें केवल महिला की आर्थिक कमजोरी को ही ध्यान में रखा गया है। रेवड़ी और लखपति में यही अंतर है। आखिर ईमानदार आयकरदाताओं पर इतना बोझ क्यों?
अब सरकार किस तरह की संस्कृति अपनाने की कोशिश कर रही है, इस पर भी विचार करना चाहिए. क्यूंकि ये तो संस्कृति है भीख मांगने की!
मैं परिणाम प्रस्तुत करना चाहूँगा –
1) आलस्य की संस्कृति : सरकार चुनावों से पहले हमें मुफ्त भोजन, मुफ्त का पैसा और मोबाइल, पंखे और टीवी जैसी चीजें मुफ्त में देकर हम सभी को और आलसी बनाने का पराक्रम कर रही है।
2) करदाताओं की कड़ी मेहनत का प्रतिफल : आप पैसा बांटने में व्यस्त हैं, लेकिन कुछ लोग अभी भी कड़ी मेहनत कर रहे हैं और कर (टैक्स) चुका रहे हैं। उनके श्रम का प्रतिफल है – मूल्य वृद्धि, सड़कों पर हुए गड्ढे (या गड्ढों वाली सड़क?), ट्रैफिक जाम, कम बारिश और हमेशा गायब रहने वाली बिजली, तथा जरा-सी बारिश के कारण बाढ़ की स्थिति, बड़े पैमाने पर प्रदूषण, बुनियादी ढांचे की कमी और भ्रष्टाचार…!
3) ब्रेन ड्रेन – पलायन पर विचार : ऐसी मुफ्त योजनाएं युवाओं को कर या निम्न सुविधाओं की तुलना करने के लिए मजबूर करेंगी। उदाहरण के लिए, 2022 में महाराष्ट्र राज्य में 2703 बंजर गाँव दर्ज किए गए थे, जिनमें से 2300 गाँव अकेले विदर्भ में थे, जबकि 2023 में एक ही वर्ष में यह संख्या 700 से बढ़ गई और अब यह 3000 तक पहुँच गई है। यह उदाहरण ही काफी है।
4) सामाजिक असमानता : जिस तरह आरक्षण के मुद्दे ने समाज में जातिगत दरारें पैदा की हैं, उसी तरह मुफ्त योजनाओं ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को चौड़ा करने का काम किया है।
हमारी 50 प्रतिशत से अधिक आबादी अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, और इसी में इसका उत्तर छिपा है कि इन लोगों में गरीबी दर इतनी अधिक क्यों है! ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश लोग कृषि या इसी तरह के क्षेत्रों पर निर्भर हैं। यदि वे अपना विकास करना चाहते हैं, तो केवल तभी जब उनकी वित्तीय क्षमता को एक निश्चित स्तर पर लाया जाएगा। वे अपनी आजीविका पर खर्च करने में सक्षम होंगे और साथ ही अपने परिवार के स्वास्थ्य को भी बनाए रखेंगे। बचे हुए पैसों से अपने बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिलाएं। इसके लिए ऐसी कंगाल योजनाओं की जरूरत नहीं है, बल्कि उनके उत्पादों को उचित मूल्य मिले, इसकी व्यवस्था करने की जरूरत है। इसके लिए सरकार को केवल निर्यात प्रतिबंध, खुला आयात, स्टॉक प्रतिबंध जैसे बेकार धंधों को बंद करना होगा।
5) वास्तविक विकास की उपेक्षा : सरकार की ऐसी मुफ्त की (रेवड़ी वाली) योजनाओं से विकास योजनाओं में योगदान कम हो जाता है। दीर्घकालिक बुनियादी ढांचे, शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए धन कम कर दिया गया है। शहरों और गाँवों में जो भी परियोजनाएँ शुरू की जाती हैं, उनका लक्ष्य निर्धारित करने के लिए किसी के पास समय नहीं है और कोई भी इसकी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता।
मैं यहां एक और महत्वपूर्ण समाधान यह सुझाना चाहूंगा कि सरकार को वोट देने वाले मतदाताओं को ही एक कार्ड जारी करना चाहिए, ….और जो इस कार्ड को दिखाएगा उसे नागरिकों को मिलने वाली सभी सुविधाएं प्रदान करनी चाहिए।
अंततः करोड़ों की उड़ान वाली ऐसी योजना केवल करोड़ों के खेल और सत्ता हथियाने तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए. यही अपेक्षा है।
यदि आप वास्तव में खुद को और देश को समृद्ध बनाना चाहते हैं और प्रगति करना चाहते हैं, तो इस मुफ्तखोरी की मानसिकता को छोड़ दें और कसम खायें कि आज मैं सच्चे दिल से ऐसी अफ़ीम देने वाली व्यवस्था को ख़त्म करने का संकल्प लूँगा!
मैं आपसे यह सोचने के लिए कदम उठाने का आग्रह करता हूं कि मैं एक एक किसान क्यों हूं, जो 1960 के दशक तक बैंकों में जमा राशि रखता था, और आज मैं कर्ज लेकर खेती क्यों कर रहा हूं? और आत्महत्या करने की हद तक क्यों जा रहा हूं? क्योंकि मैं उन्हें चुकाने में असमर्थ हूं!
इस भ्रामक, पंगु, परोपकारी मानसिकता और इसे बढ़ावा देने वाली व्यवस्था को स्थायी रूप से नष्ट या खत्म करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है।
*********
लेखक : प्रकाश पोहरे
(प्रकाश पोहरे से सीधे 98225 93921 पर संपर्क करें या इसी व्हाट्सएप नंबर पर अपनी प्रतिक्रिया भेजें। कृपया प्रतिक्रिया देते समय अपना नाम-पता लिखना न भूलें.)