चुनाव से लोगों को सरकारें मिलती हैं और सरकार को उन्हीं लोगों पर प्रशासन चलाने का संवैधानिक अधिकार मिलता है, जिन्होंने उसे चुना! यह लोगों की संप्रभुता को रेखांकित करता है और सरकार को कानूनी समर्थन देता है। अतः स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के बिना लोकतंत्र पूर्ण नहीं हो सकता और इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रहरी को भारत का चुनाव आयोग कहा जाता है। चुनाव आयोग का काम निष्पक्ष, भयमुक्त और पारदर्शी माहौल में चुनाव कराना है। परंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं चिंताजनक है कि वर्तमान समय में उस कार्य में भी आयोग के समक्ष शासक, अधिक मुखर नजर आ रहे हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा टी. एन. शेषन की चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्ति की गई थी। इस समय तक चुनाव आयोग एक मृत शरीर जैसा ही था। सिस्टम को मौजूदा आचार संहिता के पालन के बारे में भी जानकारी नहीं थी। राजनीतिक दल और जनता दोनों ही आचार संहिता से समान रूप से अनभिज्ञ थे। शेषन ने चुनाव आयोग की झुकी कमर सीधी की। इसके बाद आयोग की रीढ़ की हड्डी कुछ समय तक वैसी ही सीधी और तनी रही। लेकिन फिर वह पहले जैसी झुकती चली गयी। 2014 के बाद से चुनाव आयोग कुछ महत्वपूर्ण सत्ताधारी नेताओं के खिलाफ आचार संहिता उल्लंघन की शिकायतों से निपटने में असमंजस की स्थिति में है।
चुनावों में कुछ राजनीतिक दल मुफ्त की चीजों के लिए जो वादा करते हैं, उसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘रेवड़ी संस्कृति’ की संभावना व्यक्त की थी। सिद्धांततः इस आलोचना में कुछ भी ग़लत नहीं है, लेकिन आपत्ति के दो बिंदु हैं। एक तो यह कि प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ भाजपा के लोग नाक-भौं सिकोड़कर कहते हैं कि हमने किसी चुनाव में ऐसी मुफ्त की चीजे बांटने की घोषणाएं नहीं की, लेकिन यह सच नहीं है। आधार कार्ड के विरोध से लेकर गैस सिलेंडर और सबके खाते में कुछ लाख रुपये जमा कराने तक बीजेपी ने कई तरह के दांव खेले हैं। यानी बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाने में रेवडी की बड़ी भूमिका रही है। तभी भाजपा इस तरह के बेतरतीब वितरण से सत्ता पाने के बाद दूसरों को ऐसा न करने के लिए कहने की चतुराई दिखा सकती है। चुनाव आयोग के पास उन्हें रोकने का कोई कारण नहीं है।
इसमें बीजेपी ही नहीं सभी पार्टियां शामिल हैं, जैसे ‘अम्मा की रसोई’ अवधारणा को तमिलनाडु में प्रभावी ढंग से लागू किया गया। बिहार में स्कूल जाने वाली लड़कियों को नीतीश कुमार ने दी साइकिलें बांटी। पिछले साल पंजाब में सत्ता में आई आम आदमी पार्टी सरकार अब 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने के अपने वादे को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रही है। 18 साल से अधिक उम्र की सभी महिलाओं को प्रति माह 1,000 रुपये की सब्सिडी देने का वादा पूरा करना भी पंजाब में आप सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस-राष्ट्रवादी पार्टी ने किसानों को मुफ्त बिजली देने का वादा किया था। सत्ता में आते ही शासकों को एहसास हुआ कि इस वादे को लागू करना कितना मुश्किल होगा और अंततः योजना को बंद कर दिया गया। तत्कालीन ऊर्जा मंत्री नितिन राऊत, बाद में चन्द्रशेखर बावनकुले और अब देवेन्द्र फड़णवीस को इसका अच्छा अनुभव है।
वर्तमान में जारी तेलंगाना विधानसभा चुनाव में, कांग्रेस ने ‘महालक्ष्मी’ योजना की घोषणा करके महिला मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की, जिसमें 2,500 रुपये का मासिक भत्ता, 500 रुपये में गैस सिलेंडर और सरकारी बसों में मुफ्त यात्रा जैसे लाभ शामिल हैं। इस योजना के तहत महिलाओं को एक तोला सोना दिया जाएगा। बेशक, इसका कारण राज्य में पहले से सत्तारूढ़ भारत (तेलंगाना) राष्ट्र समिति द्वारा पिछड़े समुदायों की नवविवाहित महिलाओं के लिए लागू की गई ‘कल्याण लक्ष्मी’ योजना है। बात ये है कि राज्य कोई भी हो, चुनाव आते ही मुफ्त की रेवड़ी वाले नारों की बौछार हो जाती है। भारत ने ‘गरीबी हटाओ’ से लेकर ‘अबकी बार मोदी सरकार’ तक के नारों की यात्रा का अनुभव किया है। इन घोषणाओं के बारे में मज़ेदार बात यह है कि इनमें से कई घोषणाएँ सभी दलों द्वारा यह कहते हुए शुरू की जाती हैं कि उन्हें मुफ़्त या रियायती मूल्य पर पेश किया जाएगा। यही कारण है कि हाल के कुछ चुनावों में ‘रेवड़ी संस्कृति’ की चर्चा सामने आई।
30 जून 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण मुफ्त अनाज योजना को अगले पांच साल तक जारी रखने की घोषणा की थी, जिसे केंद्र सरकार ने कोरोना काल में गरीबों पर आए संकट के दौरान शुरू किया था। आचार संहिता लागू होने के दौरान घोषणा की गई थी कि देश के 80 करोड़ गरीबों को 2024 के लोकसभा चुनाव तक मुफ्त राशन मिलेगा और चुनाव आयोग इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है। इस योजना के तहत लाभार्थियों को 5 किलो गेहूं या चावल मुफ्त मिलता है। इस महीने पांच राज्यों में चुनाव हुए।
ऐसे में प्रधानमंत्री की घोषणा को चुनाव से जोड़ते हुए एक विपक्षी राज्य सरकार ने एक मुफ्त योजना की घोषणा की है, जिसमें वादा किया गया है कि पीएम मोदी की संभावना ‘रेवड़ी’ होगी, लेकिन चुनाव के समय पीएम की घोषणा ‘रेवड़ी’ नहीं होगी! यानी ‘हम करे तो पुण्य और दूसरा करे तो पाप’! प्रधानमंत्री ने जो घोषणा की है वह रेवड़ी नहीं बल्कि गरीबों के लिए राहत भरी घोषणा है! एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री ने कहा था कि बीजेपी सरकार ने देश के 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन देने की योजना को अब अगले पांच साल के लिए बढ़ाने का फैसला किया है। आपका आशीर्वाद और प्यार मुझे हमेशा पवित्र निर्णय लेने के लिए सशक्त बनाता है।’ प्रधानमंत्री का यह बयान मक्खन के पास जाकर बर्तन छुपाने जैसा है। ये सारी कोशिश सिर्फ वोट आकर्षित करने के लिए है। फिर सवाल यह है कि अगर गरीब सबसे बड़ी जाति है, तो फिर देश, दुनिया भर में आर्थिक रूप से समृद्ध क्यों है? क्या यह जनता को गुमराह करना नहीं है?
अगर देश में अभी भी 80 करोड़ गरीब लोग हैं तो यह मोदी सरकार की विफलता है। इस मुफ्त योजना को लागू करने से केंद्र सरकार पर सालाना 2 लाख करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा, जिसे लोगों के टैक्स से ही उठाना होगा। लोगों को यह बोझ क्यों उठाना चाहिए? इसके लिए देश के सभी जन-प्रतिनिधियों, प्रथम श्रेणी अधिकारियों के वेतन-भत्तों को न्यूनतम करके देश पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ को कम किया जा सकता है। सरकार के विकल्प के रूप में सभी सरकारी वेतन आयोगों को पांच साल के लिए निलंबित करना, विदेशी अप्रत्याशित लाभ में कमी करना, देश में वित्तीय अपराधियों की विदेशों में संपत्ति जब्त करना। जनता पर अतिरिक्त बोझ को कम कर सकता है। क्या प्रधानमंत्री को इस बात का एहसास नहीं है कि सभी राजनीतिक दल गरीबों की मदद करते हैं, लेकिन जो मध्यम वर्ग है, वह ईमानदारी से टैक्स देता है, लेकिन महंगाई से उसका दम घुटता है! सारे जन-प्रतिनिधि, सरकारी अधिकारी और मध्यम वर्ग टैक्स देकर भूखा क्यों मरें? भ्रष्ट नेताओं पर कार्रवाई न करना और उन्हें पार्टी में लेना क्या देश पर आर्थिक दबाव नहीं डालता? क्या आप ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ का नारा भूल गए हैं? राम मंदिर, धारा 370, सर्जिकल स्ट्राइक, चंद्रयान… जैसे मुद्दे सामने आये और लोग मोदी की भ्रमित करने वाली भूलभुलैया को भूल गये।
प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों को ‘अच्छे दिन’ का सपना दिखाया और भ्रष्टाचार मिटाने का वादा किया, लेकिन वास्तव में जनता के बुरे दिन आ गये हैं। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव अब लगभग खत्म हो चुके हैं। इसके कुछ माह बाद लोकसभा चुनाव होंगे। विधानसभा चुनाव की घमासान शुरू होने के साथ ही राजनीतिक दल इस दुविधा में हैं कि वे मतदाताओं से तरह-तरह के वादे करके उनका वोट कैसे हासिल करेंगे! इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी का मुफ्त राशन योजना को पांच साल के लिए बढ़ाना मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ही है। विपक्ष इस घोषणा के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाएगा। अगर हम पूछेंगे कि यह घोषणा अब क्यों की गयी, तो सत्ता पक्ष आलोचना करेगा कि विपक्ष को गरीबों की कोई फिक्र नहीं है। प्रधानमंत्री द्वारा विपक्ष द्वारा विकसित की जा रही ‘रेवड़ी’ संस्कृति की आलोचना करने और स्वयं मुफ्त राशन योजना के विस्तार की घोषणा करने के बारे में क्या कहना है?…रेवड़ी की बताशा! इस पर चुनाव आयोग का कोई स्पष्ट रुख नहीं है।
इससे लोकतंत्र में हिचकिचाहट ही पैदा होती है। चुनाव आयोग से ऐसी उम्मीद नहीं है। हालाँकि, यहाँ चुनाव आयोग की भूमिका थोड़ी अलग है। एक मामले को लेकर चुनाव आयोग की मूर्खता एक बार फिर सामने आई है। प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी परिवार की आलोचना करने पर चुनाव आयोग ने राहुल गांधी को नोटिस जारी किया है। लोकतंत्र में आलोचना महत्वपूर्ण है, लेकिन मोदी युग में ‘आलोचना’ अपराध बन गई है। आरोप है कि राहुल गांधी ने राजस्थान और मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार सभाओं के दौरान नरेंद्र मोदी को ‘पनौती’ और ‘जेबकतरा’ कहा था। इससे बीजेपी नाराज हो गई और चुनाव आयोग को कार्रवाई के लिए मजबूर कर दिया। चूंकि चुनाव आयोग भाजपा आयोग बन गया है, ऐसे में ऐसी गतिविधियों पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
एक चुनावी रैली में राहुल गांधी ने व्यंग्यात्मक अंदाज में कहा, ‘पीएम मोदी क्रिकेट मैच देखने गए और हम हार गए।’ राहुल ने जनसभा में कहा कि भारतीय टीम अच्छा खेल रही थी, तभी उन्होंने कहा कि हम क्यों हारे? तो सामने से आवाज आई- पनौती, जिसे राहुल गांधी ने दोहराया। राहुल गांधी ने खुद प्रधानमंत्री को ‘पनौती’ नहीं कहा, लेकिन मैच हारने के बाद ये बात सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगी और मीटिंग में मौजूद लोगों ने भी यही कहा। ‘पनौती’ का अर्थ है नकारात्मक व्यक्ति या अपशकुन। भाजपा जिसे अमृतकाल आदि कह रही है वह संकटकाल है और इसका संबंध पनौती से है। ‘साढ़ेसाती’, ‘पनौती’, ‘छोटी पनौती’ शब्द बीजेपी की नव-हिंदू संस्कृति से जुड़े हैं। मोदी काशी का प्रतिनिधित्व करते हैं। तो फिर प्रधानमंत्री को काशी के ‘पंडित’ लोगों को बुलाकर पनौती का सच समझना चाहिए, लेकिन ‘पनौती’ शब्द बीजेपी के दिमाग में घुस गया और उसे ठेस पहुंची, लेकिन यही मोदी और शाह पहले कांग्रेस, गांधी परिवार को ‘राहु-केतु’, ‘राहुकाल’, राहुल गांधी को ‘पप्पू’ और ‘मूर्खों का सरदार’ बता चुके हैं! जब ऐसी गालियां दी जा रही थीं, तब क्या चुनाव आयोग आंखों पर पट्टी बांधकर बीजेपी दफ्तर में सो गया था? इसीलिए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि चुनाव आयोग भारत के लोकतंत्र का संरक्षक नहीं, शासकों के हाथों की कठपुतली मात्र बन गया है और यह लोकतंत्र के लिए बेहद चिंताजनक है।
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लेखक- प्रकाश पोहरे,
(संपादक- दैनिक देशोन्नति, दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
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