सबसे पहले एक नज़र उन कुछ देशों पर डालते हैं, जो पिछले दस वर्षों में दिवालिया हो गए हैं।
- 2001 में अर्जेंटीना पर 1.45 अरब डॉलर का कर्ज़ था।
- 2008 में आइसलैंड नामक देश 85000 हजार करोड़ डॉलर के कर्ज में डूब गया।
- 2019 में लेबनान 90 हजार अरब डॉलर के दिवालियापन में चला गया।
- 2012 में ग्रीस यूरोजोन संकट में डिफॉल्ट देश बन गया।
- 1998 में रूस को वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा।
- ज़िम्बाब्वे ने 2000 के दशक के अंत में अत्यधिक मुद्रास्फीति का अनुभव किया, जिससे इसकी मुद्रा ढह गई।
- लेबनान 2019 से संकट में है, सार्वजनिक ऋण रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया है।
- इटली भी दुनिया के सार्वजनिक ऋण संकट के बीच में है और दिवालियापन से जूझ रहा है।
- वेनेजुएला उच्च मुद्रास्फीति और बुनियादी वस्तुओं की कमी के साथ गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है।
- 51 हजार करोड़ डॉलर के कर्ज के साथ श्रीलंका दिवालिया हो गया।
मतलब यह कि यदि कोई देश अपनी क्षमता से अधिक उधार लेता है या यदि कोई वित्तीय आय के स्रोत के बिना उधार लेकर ही खर्च करना जारी रखता है, तो दिवालियापन और फिर वित्तीय संस्थान द्वारा संपत्ति की जब्ती और उसकी नीलामी होती है। आज भारत में भी स्थिति इससे कुछ अलग नहीं है।
पिछले साल भारत सरकार का बजट 48 लाख करोड़ रुपये था। पिछले 70 सालों में 2013 तक भारत पर 55 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था। 2014 में जब ये सरकार सत्ता में आई थी, तो कर्ज 207 लाख करोड़ था, यानी कर्ज 4 गुना बढ़ गया, यानी बजट से 4 गुना ज्यादा!! संक्षेप में कहें तो देश की अर्थव्यवस्था चौगुनी हो गयी है!!
2013 में महाराष्ट्र पर 55 हजार करोड़ रुपये का कर्ज था, आज यह 7 लाख करोड़ हो गया है। यानी कर्ज 14 गुना बढ़ गया है। भारत के हर नागरिक पर औसतन 2 लाख रुपये का कर्ज है।
मूलतः हम यह कर्ज नये संसद भवन, सड़क, रेलवे के विकास के लिए, मेट्रो प्रोजेक्ट लाने के लिए, समृद्धि हाइवे लाने के लिए या 1 लाख 5 हजार करोड़ की नागपुर-गोवा शक्तिपीठ सड़क बनाने के लिए क्यों लें! जब आर्थिक मजबूती नहीं थी, तो ये सड़कें क्यों बनीं? या विकास कार्य क्यों कराये गये? इसका उत्तर सरल और आसान है, क्योंकि यदि आप ठेकेदार से कमीशन खाना चाहते हैं या पैसा खाना चाहते हैं, तो आप सीधे सरकारी खजाने से पैसा नहीं निकाल सकते हैं, लेकिन यह ठेकेदारों से कमीशन के रूप में प्राप्त होता है, और इसलिए करोड़ों रुपये की सड़कें बनाई जा रही हैं। लेकिन जिसने भी टेंडर दिया, उसका कमीशन उसे दिया जाता है। नतीजा हमारे सामने है।
इस संदर्भ में अर्थशास्त्री विजय घोरपड़े ने वर्ष 2022 के एक लेख में जो जानकारी दी है, वह बेहद गंभीर है।
उर्जित पटेल के बैंक से इस्तीफा देने के बाद केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक से जो रकम निकाली थी, वह इस प्रकार है-
- 2016-17 : 30,659 करोड़
- 2017-18 : 50,000 करोड़
- 2018-19 : 65,896 करोड़
- 2019-20 : 57,128 करोड़
- 2020-21 : 99,122 करोड़
घोरपड़े कहते हैं कि आर्थिक नीति में खामियां बताना मेरा काम है। अगर देश को चलाने वाली संस्थाएं जैसे बैंक, रिजर्व बैंक, सरकार अपनी पहली और बुनियादी जिम्मेदारी से छुटकारा पाने या भागने की कोशिश कर रही हैं, तो देश का और देश की अर्थव्यवस्था का क्या होगा? आज इस गिरती अर्थव्यवस्था ने देश को इतनी खस्ता हालत में पहुंचा दिया है कि इस देश की अर्थव्यवस्था का रक्षक कहा जाने वाला ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ भी कंगाल हो गया है!
घोरपड़े आगे कहते हैं कि आज इस अर्थव्यवस्था की जलती लालबत्ती की ओर देशवासियों को निशाना न बनाने के लिए जानबूझकर धर्म, हिंदू राष्ट्र, हिंदू-मुस्लिम विवाद, संस्कृति, पहचान को लेकर हंगामा खड़ा किया गया है। आज आरबीआई की स्थिति ऐसी है कि अगर कोई बैंक आर्थिक रूप से दिवालिया हो गया, तो आरबीआई अपना कर्तव्य समझकर उसकी आर्थिक मदद नहीं कर सकता। और खाताधारकों-जमाकर्ताओं को कोई वित्तीय राहत नहीं दे सकता। इसीलिए आज बैंकों का निजीकरण किया जा रहा है! आज देश में हर दिन आधा-एक प्रतिशत महंगाई बढ़ रही है और आरबीआई और सरकार पर इस पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी होने के बावजूद वे कुछ नहीं कर रहे हैं। इसीलिए आज अपने देश के अर्थशास्त्र और अर्थव्यवस्था को समझना प्रत्येक राष्ट्रवादी और देशभक्त नागरिक का प्राथमिक कर्तव्य है। इसके पीछे संवैधानिक धारणा यह है कि जब लोग अपनी मेहनत और हक का पैसा बैंकों में जमा करते हैं, तो यह सुरक्षा और विकास के लिए होता है और जब पूरे देश का पैसा विभिन्न तरीकों से आरबीआई के पास जमा होता है, तो इसका विनियोजन पूरी तरह से बैंकों के लिए होना चाहिए। इसके अलावा, संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांत हैं कि बैंकों – आरबीआई और अन्य वित्तीय संस्थानों का समग्र लेन-देन लोगों के अनुकूल होना चाहिए। लेकिन आज इन दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया जाता है। सरकार-संसद इसकी अनदेखी कर रही है। पिछले आठ वर्षों में कॉरपोरेट्स, कंपनियों, उद्योगपतियों को समय-समय पर दिए गए बड़े ऋणों में से केवल 30 से 35 प्रतिशत ही लौटाए गए हैं। यह समूह शेष 60 प्रतिशत लोगों पर सुखपूर्वक जीवन यापन कर रहा है।
क्या सरकार ने इन संस्थानों पर अपनी नीतिगत पकड़ इस तरह से मजबूत कर दी है कि सरकार चाहती है कि इन बैंकों का धन-प्रवाह वहीं तक पहुंचे? और ऐसी ‘पैसे की गंगा’ बहने से एक समय ऐसा आ गया है कि आरबीआई का मुनाफ़ा भी उम्मीद के मुताबिक काफी कम हो गया है।
फिलहाल आरबीआई का सारा सरप्लस पैसा (मुनाफा) सरकार वापस ले लेती है। सरकार ने हिसाब लगाया कि साल 2022 में उसे कम से कम 74 हजार करोड़ मिलेंगे। लेकिन आरबीआई का कुल मुनाफा 30 हजार 307 करोड़ रहा। सरकार को भी उतना ही पैसा मिला। साल 2021 में सरकार को 99 हजार करोड़ मिले थे। और 2018-19 (लोकसभा चुनाव काल) में इस सरकार ने आरबीआई से 1 लाख 65 हजार करोड़ रुपये लिये। और 2022 में आरबीआई 30 हजार करोड़ पर आ गया है। मतलब साफ है कि देश के बैंक ही नहीं, आरबीआई भी कंगाली की राह पर है…और क्या यह खतरे की घंटी नहीं है?
ऐसा क्यों और कैसे हुआ? यह आम नागरिक आज नहीं पूछेगा, क्योंकि वह देश के अर्थशास्त्र में नहीं, धर्मशास्त्र में डूबा हुआ है। उन्हें शायद यह भी नहीं पता होगा कि इससे पहले यानी 2014 से पहले किसी भी सरकार ने आरबीआई का पूरा ‘अतिरिक्त धन’ – कुल लाभ – नहीं लिया था। सरकार ने कुछ हिस्सा लाभांश के रूप में लिया है। 2018 में जब उर्जित पटेल आरबीआई गवर्नर थे, तो मोदी सरकार ने बैंक से मुनाफे का सारा पैसा मांग लिया था। लेकिन पटेल ने नियमानुसार इसे अस्वीकार कर दिया। उन्होंने अपना गवर्नर पद गंवा दिया।
2013 से पहले आरबीआई से डिविडेंड के तौर पर अधिकतम 50-55 हजार करोड़ की रकम ली जाती थी। बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के दौरान तत्कालीन दिवंगत प्रधान मंत्री श्रीमती गांधी ने आरबीआई से 50 की जगह 70 हजार करोड़ मांगे थे। लेकिन बैंक ने इसे देने से साफ इनकार कर दिया। और उस सरकार ने इसे स्वीकार कर लिया। लेकिन मौजूदा सरकार ने न सिर्फ अपने लिए आरबीआई के नियम बदले, बल्कि कॉरपोरेट्स कंपनियों आदि के लिए भी कानून बदले। पिछले 3 से 5 साल में 50 हजार कंपनियां दिवालिया हो गईं। बैंकों के कर्ज़ डूब गए और 70 हज़ार नई कंपनियाँ नए कर्ज़ लेकर खड़ी हो गईं! यही है इस सरकार का अर्थशास्त्र!
2023 में अगर आरबीआई, सरकार की उम्मीद के मुताबिक 74 हजार करोड़ का मुनाफा भी नहीं जमा कर पाई और जो हुआ भी सरकार ने कर लिया, तो डूबते बैंकों को कौन बचाएगा? लक्ष्मी-विलास, यस बैंक, डीएचएल जैसे दूसरे बैंक आपको याद होंगे! लक्ष्मी-विलास को सिंगापुर के एक बैंक को बेच दिया गया था। बाकी दो बैंकों की हालत अभी भी बेहद खराब है। और अब दो अन्य बैंकों का निजीकरण किया जा रहा है। कुतुबमीनार ‘विष्णु स्तंभ’ है या नहीं, ज्ञानव्यापी में ‘शिवलिंग’ है या नहीं, यह समझने से ज्यादा हमें यह समझना चाहिए कि सरकार की यह आर्थिक नीति देश को कहां ले आई है?
घोरपड़े आगे कहते हैं कि संवैधानिक नियम कहता है कि अगर लगातार चार महीने तक महंगाई बढ़ती रहे, तो सरकार को सीधे आरबीआई से जवाब मांगना चाहिए! और आरबीआई को भी इसका ठीक से जवाब देना होगा। लेकिन महंगाई सूचकांक में लगातार बढ़ोतरी के बावजूद न तो सरकार ने जवाब मांगा और न ही आरबीआई ने इस पर स्पष्टीकरण दिया। दरअसल, इस पर संसद में चर्चा होनी चाहिए। लेकिन इस सरकार ने वो भी नहीं किया। आज आरबीआई के निदेशक मंडल की नियुक्ति सरकार करती है, तो किस पर मुकदमा चलेगा? सरकार के खिलाफ जाने पर उर्जित पटेल पर कार्रवाई हुई! जब ऐसा ज्वलंत उदाहरण हो, तो सरकार के खिलाफ कौन जाएगा? इसके विपरीत, सरकार द्वारा नियुक्त इस बोर्ड ने इस सरकार का समर्थन करके आरबीआई को इस स्थिति में ला दिया है।
पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह की 2006 से 2014 की आठ साल की अवधि और मोदी की 2014 से 2022 की आठ साल की अवधि की तुलना करने से यह तथ्य सामने आता है कि डॉ. सिंह की सरकार ने अपने 8 साल के कार्यकाल में आरबीआई से सिर्फ 1 लाख 1 हजार 679 करोड़ रुपये ही लिए। अगर देखा जाए तो मोदी युग में यह रकम 5 लाख 74 हजार 976 करोड़ रुपये है…! यानी 5 गुना ज्यादा! इसे कहते हैं ‘प्रणालीगत भ्रष्टाचार!’ आरबीआई को असल मायनों में कंगाली में किसने पहुंचाया? यह स्पष्ट प्रतीत होता है!
सरकार को जिस जीएसटी कलेक्शन की उम्मीद सिर्फ 80 हजार करोड़ रुपये प्रति माह होने की थी, वह अब 1 लाख 85 हजार करोड़ रुपये प्रति माह तक पहुंच गया है, लेकिन सरकार जीएसटी दरें कम करने को तैयार नहीं है। यहां तक कि खाने-पीने की चीजें, कृषि उत्पाद, कृषि इनपुट जैसे उर्वरक, कीटनाशक, पाइप, ट्रैक्टर आदि, दवाएं, स्वास्थ्य देखभाल पर भी जीएसटी लगाया जाता है। वाहनों, पेट्रोल डीजल पर भारी कर लगा दिया गया है। सड़क पर टोल टैक्स में भारी वृद्धि कर दी गई है, जिसके परिणामस्वरूप परिवहन व्यय में भारी वृद्धि हुई है। भारी मात्रा में मुद्रा नोट छापे गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप मुद्रास्फीति के कारण रुपये का अवमूल्यन हुआ है, जिसके कारण देश में महंगाई बढ़ गई है। देश में भारी वृद्धि हुई है। देश के सभी सार्वजनिक उद्यमों को या तो सरकार ने बेच दिया है या अडानी-अंबानी को मुफ्त में दे दिया है। इन सबका नतीजा यह हुआ कि देश में बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ गई है।
समझदार लोग इसी वजह से या तो देश छोड़ चुके हैं या फिर बिना बैंक डिपॉजिट किए या शेयर बाजार में पैसा लगाए बिना ही सोने में निवेश कर रहे हैं और यही कारण है कि पिछले कुछ महीनों में सोने की कीमत तेजी से बढ़ी है और 75 हजार के पार पहुंच गई है।
यह इस बात का सूचक है कि अर्थव्यवस्था डूब रही है। इसलिए मतदाताओं के लिए यह निर्णय लेने का समय आ गया है कि इस सरकार के साथ क्या किया जाए, जो देश को या वैकल्पिक रूप से हमें दिवालिया बनाने जा रही है….!
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लेखक – प्रकाश पोहरे
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