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क्या आपको जंगली सूअर बनना हैं..?

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

विशाल संख्या के बावजूद, गुलामों पर एक समय मुट्ठी भर लोगों का शासन था। क्योंकि, गुलामों को कभी भी अपनी ताकत का अंदाज़ा नहीं लगाने दिया जाता था। पहले के समय में गुलाम बनाने के लिए पीठ पर कोड़े मारे जाते थे, लेकिन अब गुलाम बनाने की तकनीक बदल गई है। पोषण के नाम पर मध्याह्न भोजन के रूप में केवल खिचड़ी खाने से बचपन से ही लाचारी शुरू हो जाती है। लोगों से वादे किए जाते हैं। सौ यूनिट बिजली मुफ्त, राशन अनाज बिल्कुल मुफ्त, मुफ्त यात्रा, मुफ्त संडास, मुफ्त आवास योजना के तहत बेकार की छूट, कर्ज माफी की मांग करने की आदत डाल दी जाती है।

मुफ़्त में लेने की आदत लोगों को उन्नति की ओर कैसे ले जा सकती है? यहां मैं एक कहानी बता रहा हूं कि जंगली सूअर कैसे पकड़े जाते हैं…?

जंगल में एक उपयुक्त स्थान चुना जाता है। वहां मक्के के दाने रखे जाते हैं। जंगली सूअर प्रतिदिन वहां आते हैं और प्राप्त मुफ्त अनाज को खाते हैं। फिर उन्हें रोज वहां आने की आदत पड़ जाती है। एक बार जब यह आदत लग जाती है, तो एक तरफ बाड़ लगा दी जाती है और दूसरी तरफ अनाज रख दिया जाता है। बाड़ के एक तरफ से जंगली सूअर आते हैं और उन अनाजों को खाने लगते हैं। फिर धीरे-धीरे दूसरी तरफ बाड़ लगा दी जाती है। बाकी तरफ से जंगली सूअर आते हैं और भुट्टों को चोंच मारते हैं। कुछ दिनों के बाद तीसरी और चौथी तरफ भी बाड़ लगाकर एक गेट बना दिया जाता है। तभी, हमेशा की तरह, जंगली सूअरों का एक झुंड आता है और गेट से प्रवेश करता है और मकई को नष्ट कर देता है। साथ ही गेट बंद कर दिया जाता। अब उनके पास वापस जंगल जाने का कोई रास्ता नहीं बचता है। फिर वे गुलामी स्वीकार कर लेते हैं और एक दिन उन्हें बूचड़खाने भेज दिया जाता है। ऐसा आज भी कई देशों में हो रहा है। लोगों को मुफ्त अनाज, मुफ्त बिजली, टैक्स में छूट, कृषि सब्सिडी, कल्याणकारी योजनाएं, मुफ्त दवाएं, मुफ्त गैस सिलेंडर जैसी चीजें मुफ्त देने की घोषणा की जाती है और बदले में धीरे-धीरे उनकी आजादी छीन ली जाती है। अनावश्यक उपभोग की इन आदतों को अपनाने से, लोगों को वस्तुतः गुलामी की शिक्षा दी जाती है, और बूचड़खाने में भेज दिया जाता है। बेशक, जैसे आज किसान, छात्र, बेरोजगार युवा आत्महत्या कर रहे हैं, वैसे ही उन्हें भी भगा दिया जाता है।

हमारे देश में इससे कुछ भी अलग नहीं चल रहा है। ताजा उदाहरण के तौर पर बताऊं तो, महाराष्ट्र में अगला विधानसभा चुनाव जीतने के लिए महिलाओं और किसानों को खुश करने के लिए बजट में ‘मुख्यमंत्री माझी लाड़की बहिन योजना’ की घोषणा की गई। इससे क्या हासिल हुआ? तो पन्द्रह सौ रूपये, यानि 50 रूपये प्रतिदिन। यहां की महंगाई को देखते हुए अपनी प्यारी बहन के लिए पंद्रह सौ रुपये में एक साधारण साड़ी भी खरीदना संभव नहीं है। हालाँकि, सरकार ऐसा दिखावा करती है, मानो हम महिलाओं के लिए कोई बड़ी योजना लेकर आए हों! इस पंद्रह सौ रुपये की शर्तें भी बेहद दमनकारी हैं। एक ही घर में एक, इसने कई घरों में कलह पैदा कर दी है।
करोड़ों ‘प्यारी बहनों’ के परिवारों के लोगों से दस्तावेज़ इकट्ठा करने का काम कराया गया है। ये सब अभी घर-घर चल रहा है। एक-दो महीने बीत जाएंगे और फिर चुनाव की आचार संहिता लागू हो जाएगी और योजना को लागू करने का कोई काम नहीं होगा, तब राजनीतिक दल कहेंगे कि हम तो बहुत इच्छुक हैं। लेकिन क्या करें,आचार संहिता लागू है। कहने की आवश्यकता नहीं है, यदि आप यह योजना चाहते हैं, तो हमें वोट करें। यह किसलिए है? इस पहले, केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में भारी हार का सामना करना पड़ा। महाराष्ट्र में लोगों नेहायुति के खिलाफ वोट किया है। लेकिन पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश में सभी सीटों पर चुनाव हुए, तो बीजेपी सरकार को लगा कि वे लाडली बहन योजना के कारण चुने गए हैं, इसलिए अब यह योजना महिलाओं को ‘लाड़की बहन’ शब्द पर ‘रेवड़ी’ का एहसास कराने की है।

महाराष्ट्र के आगामी विधानसभा चुनाव में वोटों की भरपाई के लिए। अगले दिन तुरंत जीआर भी निकाल लिया गया। उसी समय घोषित कृषि पंपों को मुफ्त बिजली देने की योजना का जीआर दस दिन बीत जाने के बाद भी जारी नहीं किया गया है।

अगले चार- पांच महीनों में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव समेत अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव होंगे। इसके लिए वर्तमान में 80 करोड़ भारतीयों को ‘मुफ्त अनाज’ वितरित किया जा रहा है। ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ के जरिए यह योजना अगले पांच साल यानी 2028 तक के लिए है। ऊपर से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, पीएम किसान योजना, मुफ्त अनाज वितरण योजना, आवास योजना, श्रवण बाल, निराधार योजना, बकरी पालन योजना जैसी योजनाएं भी हैं ही!

देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए बहुसंख्यक भारतीयों की क्रय शक्ति बढ़नी चाहिए। पिछले दस-बारह वर्षों में करोड़ों लोगों का रोजगार छिन गया, आज करोड़ों शिक्षित युवा रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं। अब, इस हकीकत पर पर्दा डालने के लिए शासक मतदाताओं को मुफ्त सुविधाएं देने की घोषणा करते हैं।

श्रीलंका और वेनेज़ुएला जैसे देशों के उदाहरण देखें। दरअसल, आज श्रीलंका एक केस स्टडी बन गया है। वहां भी चुनाव के दौरान अव्यवहारिक लोकलुभावन घोषणाएं हुईं। उन्हें पूरा करते-करते श्रीलंका आज एक ऐसा राज्य बन गया है। जनता से टैक्स में छूट का वादा किया गया था, जो पूरा नहीं हो सका. भारी अनुदान, ऋण माफी, बिल का सपना देखा गया था। ये सब समानता के नाम पर किया गया। इसके विपरीत ऐसी बातें सामाजिक न्याय के आदर्श को नुकसान पहुंचाती हैं। विशाल तेल संसाधनों वाला वेनेजुएला जैसा देश कल्याणकारी कार्यक्रमों के नाम पर बर्बाद हो रहे पैसे के कारण दिवालिया होने की कगार पर है। महिलाओं और बच्चों के सशक्तिकरण, स्वास्थ्य सुरक्षा, रोजगार सृजन, वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए लागू कार्यक्रम सराहनीय हैं, लेकिन मुफ्त में पैसा देने का वादा करके शासक एक तरफ जनता को निष्क्रिय बना रहे हैं और दूसरी तरफ देश को डकार रहे हैं। श्रीलंका, वेनेजुएला जैसे देशों की तरह भारत में भी यही हो रहा है।

जब किसी चीज़ को मुफ़्त कहा जाता है, तो उसके पीछे भागने की मनोवृत्ति को बढ़ावा देने में हमारे सभी राजनीतिक दल आगे रहते हैं। फर्क सिर्फ मात्रा का है। दिल्ली, पंजाब में बिजली सब्सिडी से सरकारी खजाने पर कुल राजस्व का 16 प्रतिशत से अधिक का बोझ पड़ता है। ऐसी लागतें दीर्घकालिक विकास के लिए आवश्यक पूंजी आवंटन को कम करती हैं और उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। औद्योगिक उपभोक्ताओं के लिए प्रति यूनिट बिजली दरें भयानक हैं। पंजाब और तमिलनाडु दोनों राज्यों में घरेलू उपभोक्ताओं को बिजली सब्सिडी प्रदान की जाती है। इसलिए इन राज्यों पर भारी कर्ज है। एक पार्टी ने मुफ्तखोरी की ऐसी तकनीक अपनाई कि दूसरी राजनीतिक पार्टियां भी इसमें घसीट ली गईं।

एक तरफ पूरा देश कर्ज में डूबा हुआ है। उत्तर प्रदेश पर 6.5 लाख करोड़ रुपये, महाराष्ट्र पर 8 लाख करोड़ रुपये, दिल्ली पर 60 हजार करोड़ रुपये, पंजाब पर 3 लाख करोड़ रुपये, बिहार पर 4 लाख करोड़ रुपये, पश्चिम बंगाल पर 4 लाख करोड़ रुपये, केरल पर 4 लाख करोड़ रुपये, उत्तराखंड पर 4 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। राजस्थान 4.5लाख करोड़,… सभी राज्यों की यही स्थिति है।

केंद्र सरकार पर कुल 155 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज है। यानी केंद्र और राज्य मिलाकर देश पर कुल दो सौ लाख करोड़ रुपये (200, 000000, 0000000) का कर्ज खड़ा है। इसमें देश पर विदेशी कर्ज 670 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। एक तरफ देश कर्ज में डूबा हुआ है, दूसरी तरफ राजनीतिक दल जनता को मुफ्तखोरी की आदत डालने के लिए ‘आईजी की जान पर बायजी उदार’ की खतरनाक नीति लागू कर रहे हैं। केंद्र सरकार की ऐसी नीति में ही भारतीय अर्थव्यवस्था में असमानता छिपी हुई है। टैक्स की दरें काफी बढ़ गई हैं। किसी पर 5%, किसी पर 12%, किसी पर 18% और अंत में खाने-पीने और कृषि उत्पादों समेत सभी कृषि वस्तुओं पर भी 28% जीएसटी देना होगा। लेकिन अगर आप सोना या हीरा खरीदना चाहते हैं, तो सिर्फ 2 फीसदी टैक्स लगता है। भारत में यही असमानता है। जहां पेट्रोल डीजल पर टैक्स लगभग 150% है, आम करदाताओं के लिए 35% आयकर और बड़ी कंपनियों के लिए 25% आयकर है तो अमीर अति अमीर हो गए हैं, जबकि गरीब गरीबी के सागर में डूब रहे हैं और सरकार से मुफ्त सहायता की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस स्थिति को भूषणवः कैसे कहा जा सकता है?

अगर देना ही है, तो किसानों के माल का गारंटी मूल्य दो। महंगाई न बढ़े इसके लिए गेहूं, चावल के निर्यात पर प्रतिबंध, प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध जैसे किसान विरोधी फैसले सिर्फ इसी देश में लिए जा सकते हैं और इससे कृषि उत्पादों के दाम 10 रुपये प्रति किलो हो जाते हैं। यदि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिया जाए, या कम से कम कृषि उपज के मामले में सरकार अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है, भले ही सरकार निर्यात प्रतिबंध स्टॉक पर प्रतिबंध न लगाए, भले ही इसे अवांछित रूप से रोक दिया जाए। यदि बेरोजगारों को शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, 24 घंटे बिजली, नौकरियां दी जाएं तो भी वे अपने पैरों पर खड़े होकर परिवार का पालन-पोषण कर सकते हैं। लेकिन इसे आसानी से नजरअंदाज कर दिया जाता है। इसके विपरीत, मुफ्त भोजन, अल्प बेरोजगारी लाभ, अनाज के मुफ्त राशन, सूअरों को मुफ्त में खिलाने के परिणामों के कुछ उदाहरणों के कारण एक पूरी उत्पादक पीढ़ी बर्बाद होती दिख रही है।

वास्तव में, जिस दिन देश के लोग मुफ्त चीजों को अस्वीकार करने का साहस दिखाएंगे, या कम से कम करदाता स्विट्जरलैंड के नागरिकों की तरह मुफ्त चीजों के लिए खड़े होंगे, इस दिशा में पहला कदम राष्ट्रीय हित में होगा! इस मानसिकता को त्याग देना चाहिए। साथ ही ऐसी अफ़ीम देने वाली व्यवस्था को ख़त्म करने का ईमानदारी से निर्णय लेना चाहिए। एक सरल सत्य हर किसी को याद रखना चाहिए कि इस दुनिया में कोई भी किसी को मुफ्त में कुछ भी देने के लिए नहीं बैठा है। अगर आप यह सोचते हैं कि मुफ्त में मिल जाएगा तो आपका जीवन बेहतर हो जाएगा, तो आजादी का दरवाजा बंद हो जाएगा। तब हम शुरुआत में बताई गई उस छोटी-सी कहानी के जंगली सूअर की तरह होंगे! क्या आप जंगली सूअर बनना चाहते हैं…? इसका निर्णय आपको ही करना है..!

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लेखक : प्रकाश पोहरे
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