किसी भी देश की कार्यप्रणाली जिन दस्तावेजों के आधार पर की जाती है, उसे ही ‘संविधान’ कहते हैं। यह राज्य घटना नागरिकों द्वारा नागरिकों के लिए तैयार की गयी होती है। कोई भी सरकार इसमें शामिल मूलभूत तत्वों एवं मूल्यों को ठेंस नहीं पहुंचा सकती। संविधान में नागरिकों को जो मूलभूत स्वतंत्रता एवं अधिकार प्रदान किए हैं उसमें राजसत्ता यानि सरकार को भी बदलाव के अधिकार नहीं है। लेकिन लगता है कि आजकल उस पर वर्तमान राजनीतिकारों ने हमला कर दिया है।
2014 में केंद्र में सत्ता में परिवर्तन हुआ। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने नृपेंद्रकुमार मिश्रा को प्रिन्सिपल सेक्रेटरी नियुक्त किया। देखा जाए तो इस पद पर नियुक्ति होने से पहले मिश्रा ‘ट्राय’ यानि टेलिकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (भारत दूरसंचार नियामक प्राधिकरण) नामक संस्था के प्रमुख थे। ‘ट्राय’ के प्रमुख पद पर रहे व्यक्ति को इसके बाद कोई भी प्रशासन पद स्वीकारने पर पाबंदी लगाने वाला नियम अस्तित्व में था, लेकिन नये प्रधानमंत्री को मिश्रा ही कैबिनेट सचिव चाहिए थे, इसलिए यह नियम रद्द करने के लिए जीआर जारी किया गया और उसके बाद संसद के अधिवेशन में उसे बहुमत के आधार पर मंजूरी ली गई। सत्ता के प्रारंभ में ही अधिसूचना जारी करने वाली भारत की यह पहली ही सरकार थी! एक प्रशासकीय अधिकारी के लिए कानून व नियम बदलना यह विपरित था। कोई भी व्यक्ति इतना बड़ा नहीं होता है कि जिसके बिना काम रुके, लेकिन मैं कहूंगा कि उस पद पर वही चाहिए, तो ऐसा राजहठ कर बैठे मोदी ने कानून बदलने को प्राथमिकता दी। यहीं से व्यक्ति केंद्रित कामकाज की शुरुआत हुई, ऐसा कहना गलत नहीं होगा।
प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता में आते ही सबसे पहले जो संस्था खत्म की, उसका नाम है ‘योजना आयोग’ तथा ‘नियोजन मंडल’। प्रधानमंत्री पद आने के बाद मोदी ने सबसे पहले योजना आयोग ही खत्म कर दिया। योजना आयोग और राष्ट्रीय विकास परिषद (नॅशनल डेवलपमेंट कौन्सिल-एमडीसी)यह दो संलग्न संस्थाएं थी। एनडीसी को संवैधानिक दर्जा था और देश के सभी राज्य के मुख्यमंत्री इस परिषद के सदस्य थे। पंचवार्षिक योजनाओं के प्रारुप की अनुमति इस परिषद में ली जाती थी। कहने का मतलब यह है कि संविधान ने जो संघ-राज्य प्रणाली को पुरस्कृत किया था, उस संबंध में यही दो अति महत्वपूर्ण संस्थाएं थी। इस तरह भारत जैसे वैविध्यपूर्ण, विशालकाय देश में विकास व प्रगति ही विकेंद्रित तरीके से ही संभव है और उसमें राज्यों को महत्व का स्थान दिया जाता था। मोदी ने एक झटके में इन सभी संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट कर दिया। अब कोई राज्य अगर एकाध प्रकल्प करना चाहे, तो सीधे तौर पर उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय के सामने नतमस्तक होना पड़ता है। फिर उसका सारा श्रेय प्रधानमंत्री को दिया जाता है और राज्यों को दोयम दर्जा दिया जाता है, और वहां की प्रादेशिक सत्ताधारी पार्टी को अकार्यक्षम साबित किया जाता है। फिर उस पर ऐन चुनाव के समय टीका-टिप्पणी करना, ऐसा प्रकार शुरू है, यानि राज्य के अधिकार मोदी ने एक झटके में ही खत्म कर दिए हैं।
2014 में शुरुआती दौर में बीजेपी को राज्यसभा में बहुमत नहीं था, जिससे लोकसभा में पारित हुए विधेयकों को राज्यसभा में अनुमति मिलते समय सरकार को विपक्षी दलों से हाथ मिलाना पड़ता था। इसके पूर्व ऐसी स्थिति होने के बावजूद सत्तापक्ष विपक्षी दलों के साथ संवाद कर, उनकी मदद लेकर और समय पर उनकी कुछ सूचनाओं का स्वीकार करने पर भी विधेयक में सहमति हो जाती थी। लेकिन 2014 के पश्चात यह तरीका बंद हो गया। राज्यसभा का अस्तित्व मिटाना इतना आसान ना होने से बीजीपी ने अलग ही योजना बनाना प्रारंभ किया। राज्यसभा को वित्तीय विधेयक संबंधी अधिकार ना होने से बीजेपी ने बाद की कालावधि में प्रति विधेयक यह वित्तीय विधेयक (मनी बिल) ऐसा कहकर, राज्यसभा की अनदेखी कर उन्हें जैसा चाहिए वैसे कानून में सहमति मिले, ऐसी शुरुआत की।
संसद का महत्व खत्म करने के लिए और भी एक काम इस सरकार ने किया है। लोकसभा का संचालन स्पीकर यानि अध्यक्ष की ओर से होता है। संविधान में लोकसभा के लिए उपाध्यक्ष की नियूक्ति का प्रावधान है। अध्यक्ष का चयन होने के पश्चात जल्द से जल्द उपाध्यक्ष का चयन करने का प्रावधान संविधान ने रखा है, लेकिन वर्तमान लोकसभा का पांच वर्ष की अवधि अब खत्म होते हुए आने से इस लोकसभा ने यानि लोकसभा में बहुमत वाली सत्ताधारी पार्टी ने और सरकार ने उपाध्यक्ष का चयन भी नहीं किया। यह लोकसभा बगैर उपाध्यक्ष की ही रही।
सिर्फ संसद में जाते समय प्रवेश द्वार की सीढ़ियों पर नतमस्तक होने का नाटक कर लोकतंत्र पर प्रेम सिद्ध नहीं होता। ऐसे राज्यकर्ताओं की नौटंकी का और एक उदाहरण तब दिखा, जब इन शासकों ने संसद का नया निर्माण कर पुराने वास्तू को इतिहास जमा किया। पुरानी वास्तू मजबूत होने के बावजूद भी सिर्फ एक व्यक्ति के हठ के चलते करोड़ों रुपयों का नुकसान किया गया। ब्रिटेन की संंसद का भवन ऐतिहासिक है, वहां पर सदस्यों को बैठने के लिए अच्छी जगह भी नहीं है। कई सदस्य खड़े रहते हैं तथा नीचे गलीचे पर बैठते हैं, लेकिन वहां के राजनेताओ ने नई संसद का निर्माण कराने की इच्छा भी नहीं जतायी। संसद की इमारत छोटी है या बड़ी है, इस बात को वे ज्यादा महत्व नहीं देना चाहते। ब्रिटेन में ऐतिहासिक विरासत का जतन किया जाता है। फिलहाल भारत में शुरू रहने वाला पाखंड वहां पर नहीं है।
भारत द्वारा संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली को स्वीकार करते समय स्वतंत्र चुनाव आयोग की स्थापना की गयी। संविधान ने आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के साथ ही उसे स्वायत्ता ही प्रदान की है। लेकिन चुनाव आयोग का बीते दस वर्षों का प्रदर्शन देखते हुए दुर्भाग्य से कहना पड़ता है कि यह सरकार का ही एकाध मंत्रालय हो, ऐसे तरीके से आयोग ने सरकार का काम किया है। एक समय था जब सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई यानि सरकार के ‘पिंजरे का तोता’ है, ऐसा कहा जाता था। आज सीबीआई, ईडी जैसे ही चुनाव आयोग भी ‘पालतू जानवर’ होने का दिखाई देता है। प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी चुनाव प्रचार में धर्म, धार्मिक प्रतीकों का बेशुमार उपयोग करते हैं। यह सरासर चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन होने पर भी उनके सभी अपराध माफ किये जाते हैं। लेकिन एकाध विपक्षी नेता ने मामूली तौर पर भी आचारसंहिता का अगर उल्लंघन किया, तो उस पर कार्रवार्ई करने का पक्षपात आयोग के ओर से किया जाता है। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले पुलवामा घटित हुआ. प्रधानमंत्री ने आचारसंहिता को भंग करते हुए भारतीय सेनादल, उनका हौतात्म्य उनके नाम से वोटरों को बीजेपी को वोट देने का आह्वान किया था। तब प्रधानमंत्री के खिलाफ आचारसंहिता का उल्लंघन करने की छह शिकायतें दर्ज की गई थी। उस समय अशोक लव्हासा ने तीन में से एक चुनाव आयुक्त होने के नाते मोदी ने आचारसंहिता का उल्लंघन करने और उस संबंधी कार्रवाई की आवश्यकता संबंधी राय व्यक्त की थी। अन्य दो चुनाव आयुक्तों ने सिर्फ बहुमत ने निर्णय कर लव्हासा की राय को नकारा, लेकिन लव्हासा ने मोदी व शहा की जोड़ी का ‘इगो हर्ट’ किया था। परिणामत: तत्काल लव्हासा, उनकी पत्नी व जम्मू-कश्मीर में सरकारी अधिकारी के तौर पर काम करने वाली उनकी लड़कियों की संपत्ति की पूछताछ शुरू हुई। सरकार लव्हासा को निकाल नहीं सकती थी, क्योंकि वे संवैधानिक पद पर थे। आखिरकार ‘आशियाई विकास बैंक’ के संचालक पद पर उनकी नियुक्ति करने का आदेश निकालकर उन्हें चुनाव आयोग से निकाल दिया गया।
हिमाचल प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनाव एक ही समय पर लेना अपेक्षित था। लेखों इसके बावजूद सिर्फ गुजरात के लिए कुछ विशेष घोषणा करने का अवसर मिले, इसके लिए आयोग ने इन दोनों चुनावों के लिए विभिन्न समय पत्रक घोषित किए। एक ओर प्रधानमंत्री ‘एक देश एक चुनाव’ का लक्ष्य रखते हैं, वहीं दूसरी ओर जिन चुनाव को एकसाथ लेना संभव होने के बावजूद भी सिर्फ राजकीय स्वार्थ के लिए अलग-अलग लेना पड़ता है। यह भी एक नौटंकी का आविष्कार मानना पड़ेगा।
उच्चतम न्यायालय ने प्रधानमंत्री, सर न्यायाधीश और लोकसभा के सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता की समिति की ओर से चुनाव आयुक्त का चयन करने की सिफारिस की थी। लेकिन मोदी सरकार ने तत्काल यह निर्णय रद करने वाले और चयन प्रक्रिया से सरन्यायाधीशों को ही निकालने का विधेयक संसद की ओर से मंजूर करवा लिया। इससे यह पता चला कि सरकार को उनके उंगलियों पर व इशारे पर नाचने वाला चुनाव आयोग चाहिए, यह स्पष्ट हो चुका है। देश में लाखों, करोड़ों लोग ईवीएम पर आशंका उठाते हैं, फिर भी इस संबंध में कोई भी निर्णय न देने वाली चुनाव व्यवस्था यही दर्शाती है कि वह सत्ताधारी पार्टी के हाथ का खिलौना बन गई है।
ऐसे अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं कि जिससे इस सरकार ने पिछले दस वर्षों में लोकतांत्रिक संस्थाओं को किस तरह से खत्म किया है। संघराज्य प्रणाली और विकेंद्रीकरण को संविधान में विशेष प्रधानता दी गयी है। क्योंकि भारत एक विशालकाय देश है और वह विविधताओं से परिपूर्ण है। देश में समाविष्ट प्रत्येक राज्य से ही विविधता अपना वैशिष्ट्यपूर्ण स्वरुप प्रकट करते हुए नजर आता है। ऐसा होने पर भी ‘हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान’ इस विचारप्रणाली के आधार पर दक्षिण की ओर के राज्यों पर हिंदी थोपने का प्रकार शुरू किया गया है। जीएसटी का (वस्तू एवं सेवा कर प्रणाली) कानून भी राज्यों की आर्थिक स्वायतत्ता खत्म करने वाला है। आर्थिक निधि के लिए राज्यों को केंद्र के आगे नतमस्तक करने की साजिश है। सिर्फ प्रधानमंत्री और उनके प्रधानमंत्री कार्यालय के कुछ नौकरशाह के हाथों में देश के सत्ता का केंद्रीकरण किया गया है। इसलिए संविधान के विकेंद्रीकरण और संघराज्य प्रणाली इन दोनों अतिमहत्व के पहलुओं को नष्ट करने का काम शुरु है।
देश में ऐन चुनाव के समय विपक्षी दलों के बैंक खाते फ्रीज करना, उन पर कोई पुराने मामले उजागर कर हजारों-करोड़ों वसूली के नोटिस भेजना, इलेक्ट्रोरल बॉण्ड की सहायता से खुद हजारों करोड़ों रुपयों का अवैध फंड जमा करना…. ऐसे कितने मामले लोकतंत्र का गला घोंटने वाली बातें देश में शुरू रहने से सवाल इतना ही है कि यह कब तक चलेगा? कितने कालावधि तक यह शुरू रहेगा? आखिर मतदाताओं को ही तो निर्णय लेना पड़ेगा कि यह होने देना या नहीं? इसका निर्णय अब नागरिकों को लेने का समय आ गया है। क्योंकि लोकतंत्र कायम रखने का यह आखरी प्रयास है। सवाल यह है कि क्या सामान्य जनता इन सभी बातों को ध्यान में रखकर मतदान करने घर से बाहर जाएगी या नहीं?
– प्रकाश पोहरे
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