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आखिर पैसा जाता कहां है?

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

सरकारी खजाने में पैसा कैसे जमा होता है? यह समझने के लिए आपका अर्थशास्त्री होना जरूरी नहीं है। निजी या सरकारी नौकरी करने वाले लाखों-करोड़ों लोग अपनी नौकरी से वेतन पाते हैं, उस पर सरकार टीडीएस काटती है। व्यवसायी वर्ग विभिन्न व्यवसायों से कर जमा कर सरकार को उन करों का भुगतान करता है और पैसा सरकारी खजाने में जाता है। ऐसे करोड़ों लोग हैं, जिनकी आय टीडीएस यानी स्रोत पर कर कटौती से आती है। इसके अलावा करोड़ों लोग ऐसे भी हैं, जो अपना सारा कारोबार पूरी तरह से बिलों से करते हैं और उस पर जीएसटी लगाकर सरकार के लिए टैक्स इकट्ठा करते हैं यदि आप जहां भुगतान करते हैं, वहां कोई बिल नहीं बनता है, तो काला धन वहीं से शुरू होता है। हालांकि, करोड़ों लोग ऐसे हैं जो जीएसटी, वैट, टीडीएस, इनकम टैक्स (आयकर), रजिस्ट्रेशन टैक्स (स्टांप ड्यूटी), एक्साइज, कस्टम ड्यूटी, रोड टैक्स, टोल टैक्स, प्रॉपर्टी टैक्स सहित दर्जनों प्रकार के टैक्स इकट्ठा करते हैं और भुगतान करते हैं। ऐसे करों से ही सरकारी खजाना भरता है। यह सीधा-सरल गणित है।

सड़कों पर टोल टैक्स बढ़ा दिया गया है। चार पहिया, दो पहिया वाहनों पर लगभग 60 प्रतिशत कर बढ़ा दिया गया है। वहीं सभी कृषि वस्तुओं, खाने-पीने की वस्तुओं, अनाज और यहां तक ​​कि दूध, दही, छाछ आदि पर भी भारी-भरकम टैक्स लगा दिया गया है, जो पहले कभी था ही नहीं। सरकार हर जगह टैक्स बढ़ा रही है। बस उसे दोनों हाथों से लूटना है। जबकि अकेले जीएसटी का लक्ष्य 80 हजार करोड़ रुपए प्रति माह रखा गया है, जिसमें से 1 लाख 85 हजार करोड़ प्रति माह यानी 22 लाख करोड़ रुपए प्रति वर्ष अकेले जीएसटी से एकत्र होता है। इससे इसकी दरें कम नहीं होती हैं। वहीं, अन्य से करों से ऊपर उल्लिखित आय अलग ही है।

उधर, रासायनिक उर्वरकों पर सब्सिडी कम कर दी गई है और उस पर भारी जीएसटी लगा दिया गया है। वहीं, रेलवे किराए में भारी वृद्धि की गई है, तो यह संचित धन आखिर कहां जाता है?

ऊपर से सरकार ने केरोसिन सब्सिडी, पेट्रोल सब्सिडी, गैस सब्सिडी, कृषि सब्सिडी इत्यादि सारी सब्सिडी बंद कर दी है। छात्रों कि स्कॉलरशिप बंद कर दी गई है। पेंशन बंद कर दी गई है। फर्टिलाइजर सब्सिडी कम कर दी गई है। सरकार के राजस्व का स्रोत आम जनता ही है। एक तरफ आम लोगों से पैसा वसूला जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ उन लोगों को मिलने वाली सभी सुविधाएं और रियायतें बंद कर दी गई हैं।

दूसरी ओर, सरकार ने उद्योगपतियों और कंपनियों पर टैक्स की दर बहुत कम रखी है। भारत दुनिया के उन देशों में से एक है, जो कारोबारियों से सबसे कम टैक्स वसूलता है। टैक्स की रकम पहले से ही कम है, ऊपर से हर साल करीब दस से पंद्रह लाख करोड़ रुपये की टैक्स छूट उद्योगपतियों को दी जाती है। 2009-10 में कंपनी टैक्स 39 फीसदी था, जो अब घटकर 2021-22 में 24 फीसदी हो गया है।

यहां संक्षेप में यह जानना भी आवश्यक है कि भारत की कर-प्रणाली किस प्रकार विपरीत दिशा में आगे बढ़ रही है। उच्च आय पर ऊंची दर से कर लगाने का सिद्धांत सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत है। अमेरिका में, सरकारी राजस्व का 50 प्रतिशत शीर्ष 5 प्रतिशत करदाताओं द्वारा भुगतान किया जाता है, जबकि 50 प्रतिशत राजस्व का भुगतान निचले 25 प्रतिशत द्वारा किया जाता है। लेकिन यह सिद्धांत प्रत्यक्ष करों पर लागू होता है। मूल रूप से, भारत में अप्रत्यक्ष कर, जो उपभोक्ता के रूप में हर किसी पर पड़ता है, प्रत्यक्ष करों की तुलना में बहुत अधिक है। इसलिए सबसे गरीब करदाता यानी भिखारी भी जीएसटी का भुगतान करते हैं!

2013 में सभी करों के माध्यम से एकत्रित धन 10 लाख करोड़ था, लेकिन अब यह 26 लाख करोड़ हो गया है और केंद्र सरकार का बजट लगभग 48 लाख करोड़ है। जबकि राज्य सरकारों का बजट 6 लाख करोड़ है।

एक ओर सरकार अनगिनत अपात्रों को सब्सिडी (अनुदान ) प्रदान करती है। घाटे का बजट सार्वभौमिक मुद्रास्फीति लगाता है। अमीर मुद्रास्फीति को पचा सकते हैं, लेकिन इसका खामियाजा गरीबों को भुगतना पड़ता है। इसलिए करदाताओं के रूप में गरीबों को भी परेशान किया जा रहा है। इसलिए भारत में करदाताओं का पक्ष लेना इतना भी समता-विरोधी नहीं है। जो कर लगाया हुआ प्रतीत होता है, जरूरी नहीं कि वह उस व्यक्ति की वास्तविक संपत्ति छीन ले, जिससे वह लगाया गया है।

टैक्स तो ‘आटे में नमक’ जैसा होना चाहिए, लेकिन वर्तमान में यह ‘नमक में आटे’ जैसा हो गया है। बड़े करदाता (कॉर्पोरेट और व्यक्तिगत) भी आपूर्तिकर्ताओं, श्रमिकों और उपभोक्ताओं पर अपने करों का बोझ डालते हैं। इससे निचले स्तर की संपत्ति छीनी जा रही है। यह प्राणी ‘करदाता’ का ‘वर्ग’ चरित्र बन गया है। अब यह सोचना महत्वपूर्ण है कि कितना पैसा इकट्ठा होता है, और खर्च किस पर होता है!

देश कोई भाषण देने से नहीं चलता। उसके लिए पैसा लगता है। लेकिन यह कहां से आएगा? वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को एक देश और एक कर के रूप में प्रचारित किया गया, लेकिन पेट्रोल और डीजल को इसमें शामिल नहीं किया गया। क्योंकि जीएसटी की उच्चतम कर दर 28 प्रतिशत है। अगर उस रेट को पेट्रोल-डीजल पर लागू किया जाए तो आपको डीजल-पेट्रोल ज्यादा से ज्यादा 50-55 रुपये तक मिलेगा। इसलिए इसे जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है। फिर इस पर मनमाने ढंग से टैक्स यानी वैट (वैल्यू ऐडेड टैक्स) लगाया जा सकता है, जो फिलहाल 100 प्रतिशत से भी ज्यादा है।

केंद्र सरकार ने पिछले छह वर्षों में पेट्रोल और डीजल पर लगाए गए उत्पाद शुल्क से 40 लाख करोड़ रुपये कमाए हैं। इस साल के आखिरी एक महीने में सरकार ने पेट्रोल-डीजल पर टैक्स से 89 हजार करोड़ रुपये जुटाए हैं, इस एक आंकड़े से पता चलता है कि सरकार के लिए पेट्रोल-डीजल पैसों की खान की तरह है। सरकार की नीति है ‘कर लगाओ और पैसा इकट्ठा करो’. सबसे खास बात यह है कि यह टैक्स आम लोगों से पेट्रोल और डीजल की खरीद पर वसूला जाता है। परिणामस्वरूप, परिवहन की लागत मुद्रास्फीति दर को बढ़ाती है। यानी व्यक्तिगत आयकर, कॉर्पोरेट टैक्स, वस्तु एवं सेवा कर, उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क, ईंधन कर आदि से सरकारी खजाने में आने वाला पैसा कहां जा रहा है? यह एक वास्तविक शोध का विषय बन गया है। ऊपर से देश पर भारी कर्ज बढ़ गया है।

2004 में भारत सरकार पर सिर्फ 17 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था। 2014 तक यह 55 लाख करोड़ रुपये हो गया। 2014 से 2024 तक बीजेपी के 10 साल के शासनकाल में देश का कर्ज 210 लाख करोड़ से ज्यादा बढ़ गया है, जो पिछले 10 साल में चार गुना है। 142 करोड़ की आबादी मानकर प्रत्येक नागरिक पर करीब 1 लाख 47 हजार रुपये का केंद्र सरकार का कर्ज है। 2014 में राज्य पर कर्ज 50 हजार करोड़ था, इन दस सालों में यह बढ़कर 9 लाख करोड़ हो गया है, राज्य की आबादी 12 करोड़ है, यानी राज्य के प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर 75 हजार रुपये का कर्ज है।

एक तरफ सरकार जनता से ऊपर बताए अनुसार करों के रूप में भारी मात्रा में धन वसूल रही है, अनुदान बंद कर पैसे बचा रही है और दूसरी तरफ कर्ज पर कर्ज ले रही है, वहीं दूसरी तरफ जनता को दी जाने वाली – रियायतें, अनुदान, छात्र छात्रवृत्ति आदि लगातार बंद होने पर जनता को सूचित भी नहीं किया गया। तो सब्सिडी से बचाया गया पैसा और करों और ऋणों के माध्यम से एकत्र की गई भारी-भरकम राशि आखिर गई कहां?

‘सराउ’ का मतलब है ‘सकल राष्ट्रीय उत्पादन’ तथा ‘जीडीपी’ का मतलब है ‘सकल घरेलू उत्पादन’ के विचार से भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है, लेकिन जब सरकार ऐसा ढोल पीटती है, तो आम लोगों को इस विकास के फल का स्वाद चखने क्यों नहीं मिलता? इसे देखे जाने की जरूरत है।

सरकार उस संविधान पर काम करती है, जिसमें कहा गया है कि ‘नागरिकों के पोषण और जीवन स्तर को ऊपर उठाना, सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करना, शिक्षा और कानून व्यवस्था बनाए रखना राज्य का कर्तव्य है,’ जो किभारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण खंड है। आज देश में बढ़ते अपराध, बलात्कार, ध्वस्त कानून व्यवस्था को देखते हुए राज्य और केंद्र सरकार को इस धारा की याद दिलाने की जरूरत आ पड़ी है। क्या यह आसान नहीं होना चाहिए कि किसको प्राथमिकता दी जाए? जनकल्याण के लिए सरकारी खजाने में जो पैसा जमा होता है, उसे उद्योगपतियों की कर्जमाफी, उनके लिए कर माफी, समृद्धि हाईवे, आगामी शक्तिपीठ हाईवे या अन्य अनावश्यक परियोजनाओं के लिए टेंडर लेना, सीमेंट रोड, बुलेट ट्रेन जैसे विभिन्न कार्यों पर खर्च किया जाता है, क्योंकि इसमें भारी कमीशन लिया जाता है कर्ज प्रदेश पर है, देश पर है, बारी-बारी से आपके-हमारे सिर पर है, लेकिन सीधा हिसाब है कि कमीशन की मलाई पार्टी, मंत्रियों, कार्यकर्ताओं-अफसरों और चहेते उद्योगपतियों की जेब में ही जाती है।

दूसरी ओर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, हमारे देश में करीब 19 करोड़ लोग कुपोषित हैं। विश्व भूख सूचकांक में भारत 107 देशों में 94वें स्थान पर है. श्रीलंका और बांग्लादेश में कुपोषण की दर भारत से कम है। 80 करोड़ लोगों को हमारी सरकार मुफ्त खाना देती है, हमारे देश की हालत इतनी खराब हो गयी है। सरकार ने मध्यम वर्ग के लिए भी राशन दुकानों की कतार में खड़े होने का नौबत ला दी है। क्योंकि बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियां चली गई हैं। सरकारी भर्तियाँ बंद हैं, जिला परिषद, नगर निगम स्कूल बंद हैं, क्योंकि सरकार के पास वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं, लेकिन सरकार ‘लाडकी बहिन – लड़ाका भाऊ व तीर्थयात्रा’ जैसी भीख मांगने वाली योजनाओं पर पैसा खर्च करना चाहती है, क्योंकि वे ऐसा करना चाहते हैं। वोट प्राप्त करके कुर्सी पर बैठकर फिर से मलाई खाने के लिए वे तैयार बैठें हैं। इसमें जनता या देश सब गया भाड़ में…. ऐसी एक सीधी-सरल विचारधारा है। लोगों को बिजली, पानी, स्वास्थ्य सेवा, स्कूल, सुरक्षा और अन्य सुविधाएं प्रदान करना किसी भी सरकार की ‘मुख्य जिम्मेदारी’ है, लेकिन सरकार इस पर पैसा खर्च नहीं कर रही है। जिसको रोग है, उसका उपचार करने के स्थान पर दूसरे किसी का भी उपचार किया जाये, तो रोग कैसे ठीक हो सकता है? इतने वर्षों के बाद भी देश से पिछड़ापन जाता नहीं है! विभिन्न सामाजिक वर्गों द्वारा रियायतों की मांग जारी ही है। आखिर क्यों?

कोई भी सरकार, कोई विश्वविद्यालय, कोई संस्था, यहां तक ​​कि विपक्षी दल भी इस तथ्य का अध्ययन नहीं कर रहा है कि गरीबी अभी तक खत्म क्यों नहीं हुई? मतलब साफ़ है कि इनको मूल समस्या को समझने की ज़रूरत नहीं है।

भारत में एक ही समय में दो वर्ग रहते हैं। एक लूटने वाला और एक लुटने वाला! लेकिन असली चिंता यह है कि इन लूटने वालों में सरकार का नाम भी शामिल है। अब इसे बदलना उन लोगों पर निर्भर है, जिन्हें आज लुटा जा रहा है। अब वह अवसर आ गया है कि उसका लाभ लेना है या उसे यूँ ही जाने देना है….

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लेखक : प्रकाश पोहरे

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