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न्याय हुआ, या घात हुआ..?

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प्रकाश पोहरे, प्रधान संपादक, दैनिक ‘देशोन्नती’, हिंदी दैनिक ‘राष्ट्र प्रकाश’, साप्ताहिक ‘कृष्णकोणती’

कहा जाता है कि राजा जो करता है वही न्याय कहलाता है। फिर राजा को न्याय देने में कितना भी समय लगे, राजा द्वारा दिया गया न्याय ‘उचित’ हो या न हो! अब राजा वास्तव में न्याय करता है, या उसे ‘न्याय’ समझना पड़ता है, इसका उत्तर खोजने का समय आ गया है।

पिछले नौ साल देश के लिए ‘मोदी काल’ था। मोदी के समर्थक तैयारी कर रहे हैं कि अगला दौर भी ‘मोदीकाल’ के नाम से भी जाना जाए। ऐसा करते समय सच-झूठ, आरोप-प्रत्यारोप, प्रचार-प्रसार, दावा-प्रतिदावा जैसी बातों का बिना कानूनी रोक-टोक के प्रचार किया जाता है।

सदियों पुरानी भारतीय मानसिकता को ध्यान में रखते हुए कि राजा विष्णु का अवतार है, मोदी एक राजा का आदर्श नमूना हैं। हमारी संस्कृति और परंपरा है कि प्रजा को फटे-पुराने कपड़े पहनने चाहिए, लेकिन देवरूप राजा को लकदक, जरी और रेशमी कपड़े पहनने चाहिए। प्रजा को रुखी-सूखी रोटी पानी के घूंट के साथ निगलनी चाहिए और राजा को केवल एक मुट्ठी स्वादिष्ट भोजन ही ग्रहण करना चाहिए। मोदी कोई अपवाद नहीं हैं। यह सब लोगों को मंजूर है।

जैसा कि मोदी मूल मंत्र को जानते हैं कि जनता को कुछ देना चाहिए, लेकिन वास्तव में नहीं देना चाहिए। उन्होंने पिछले नौ वर्षों में लोगों को जो कुछ भी चाहिए, दिया है। क्योंकि वे वास्तव में देना नहीं चाहते थे। यूपीए की प्रोपगंडा मशीन ने कभी अंदाजा नहीं लगाया था कि लोगों के मन में क्या है, उन्हें क्या चाहिए! वे थे करोड़ों युवाओं को रोजगार, भ्रष्टाचार का अंत, उत्पादक देश के रूप में भारत की पहचान, महिलाओं के लिए सुरक्षित वातावरण, पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों पर रोक और कुल मिलाकर सभी के लिए ‘अच्छे दिन’ के वादे! वास्तव में मोदी के नौकरियों के वादे पर विश्वास करने वाले युवा बड़े पैमाने पर बेरोजगार हैं। मोदी की बहुप्रचारित मेक इन इंडिया योजना का उद्देश्य घरेलू उद्योगों में विनिर्माण की हिस्सेदारी को सकल घरेलू उत्पाद के 17 प्रतिशत से बढ़ाकर 25 प्रतिशत करना और अनुमानित 2 करोड़ युवाओं के लिए रोजगार सृजित करना है। लेकिन यह योजना विफल रही। विमुद्रीकरण (नोटबंदी) और खराब तरीके से लागू की गई जीएसटी कर योजना का अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव जारी है। यह सब देखने के बाद उल्टा सवाल उठता है कि नरेंद्र मोदी किस दुनिया में जी रहे हैं? और इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए आपको बहुत बुद्धिमान होने की आवश्यकता नहीं है। वह 1 प्रतिशत लोगों की दुनिया है जो भारत के 73 प्रतिशत संसाधनों के मालिक हैं! और यही 1 प्रतिशत लोग अधिकांश मीडिया के मालिक हैं और उस पर नियंत्रण रखते हैं। बाकी 99 प्रतिशत लोग, मीडिया जो भी छापता है, दिखाता है, उसे स्वीकार कर लेते हैं। यह एक प्रतिशत लोग ही राजा की अनिवार्यता के मिथक को फैलाना चाहते हैं। क्योंकि यही उन्हें 1 प्रतिशत में बने रहने के लिए आवश्यक राजनीतिक समर्थन प्राप्त करता रहेगा। राजा निर्वस्त्र हैं, लेकिन जब से चुनाव नजदीक आए हैं, मीडिया बाकी 99 प्रतिशत लोगों को यह समझाने में लगी है कि उन्होंने कितने शानदार कपड़े पहने हैं! लेकिन ‘सार्वभौमिक गुरु’ के मोह में डूबे गरीब मतदाता इस पर आंख मूंदकर विश्वास कर लेते हैं। इसलिए ‘मोदीमोहिनी’ और गहरी हो जाती है…

पिछले नौ सालों में वोटरों के साथ ‘न्याय’ हुआ या ‘घात’ हुआ..? इसका विश्लेषण करते समय उनके वादों को याद करना होगा।
उन्होंने कहा…
विदेशों से काला धन लाएंगे,
और हमने…
मन ही मन 15 लाख की खरीदारी भी कर ली!
उन्होंने कहा…
मंहगाई की समस्या का होगा समाधान
और हमने अपने…
सस्ते वोटों को मुफ्त में उनकी झोली में डाल दिए!
उन्होंने कहा…
नोटबंदी करेंगे और काला धन खत्म करेंगे,
तब हम …
दिन भर कड़ी धूप में लाइन में खड़े-खड़े मर गए!
उन्होंने कहा कि हम लॉकडाउन करके वायरस खत्म कर देंगे। हम दो साल तक घर में बंद रहे।
उन्होंने कहा कि ताली-थाली बजाने से वायरस खत्म हो जाएगा, हम ताली-थाली बजाते रहे…!

इन सब कष्टों को झेलने के बाद भी लोगों को मिली कतारें, नोटों की कमी से किसानों की फसल चौपट और रोजी-रोटी के दाम गिरे, असंगठित मजदूरों, छोटे दुकानदारों, फेरीवालों पर बेरोजगारी-भुखमरी का असहनीय कुल्हाड़ा पड़ा, बाजार की मांग और लेन-देन में ब्रेक लगा, सभी सहकारी बैंक – उनके किसानों और ग्रामीण खाताधारकों के भयानक नुकसान के अलावा और कुछ नहीं मिला।

लेकिन सारी नोटबंदी सिर्फ एक व्यक्ति की सनक की वजह से बेहद असंवेदनशील और लापरवाह तरीके से की गई। 2000 के नोट का बनना मजाक बन गया। क्योंकि ये नोट एटीएम के आकार में फिट नहीं होते हैं, रिजर्व बैंक को इन नोटों के बंडलों के साथ एटीएम में जाने के बाद ही पता चला। यह कितना खराब प्रशासन था। इसका कारण यह है कि यह सरकार मोदी और अकेले मोदी की है। चूंकि वे इस सिद्धांत पर खड़े थे, इसलिए इस मामले में वित्त मंत्री और रिजर्व बैंक भी उतने ही बेबस नजर आए, जितने कि अन्य लोग!

इसे दुनिया के किसी भी देश में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। लेकिन काली कमाई और जाली नोटों के खिलाफ कोई कारगर कार्रवाई होगी, इस उम्मीद में ही देश की जनता ने एक मरीज की तरह सरकार और प्रधानमंत्री पर भरोसा जताया। लेकिन हाथ में अंत में कद्दू ही मिला, ये है नोटबंदी का नतीजा!

कुछ मीडिया वाले पिछले नौ वर्षों में मोदी सरकार द्वारा घोषित विभिन्न योजनाओं की समीक्षा करने का प्रयास करेंगे। लेकिन मोदी सरकार ने मीडिया पर जिस तरह का प्रभाव पैदा किया है, उसे देखकर कोई वास्तविक तस्वीर सामने आना मुश्किल है। नोटबंदी, जीएसटी और किसानों को गारंटीशुदा कीमत की घोषणा इस सरकार ने की थी। इनमें से पहली दो योजनाओं की घोषणा भ्रष्टाचार उन्मूलन के उद्देश्य से की गई थी। लेकिन इस मामले में लोगों का अनुभव खराब रहा।

प्रधानमंत्री ने ‘मुझे सिर्फ 50 दिन दीजिए’ की अपील की, लेकिन लोगों को जल्द ही एहसास हो गया कि वे केवल खोखले शब्द थे, उसमें कोई दम नहीं था!

पिछले नौ सालों में मोदी सरकार ने देश की आर्थिक नीति को चौपट कर दिया है। मोदी सरकार रिजर्व बैंक को अपनी मर्जी के आगे झुकाने में सफल रही है। उसके लिये वह अपने सुननेवाले गवर्नर को वहां ले आए। नोटबंदी में खिलवाड़ हुआ। वह घपला अभी तक खत्म नहीं हुआ है। नीरव मोदी, चोकसी या इसी तरह के बैंक घोटालेबाज इस दौरान हमारे सामने आए। कुछ तो देश छोड़कर भाग भी गए। सरकार इनमें से एक को भी पकड़कर वापस नहीं ला पाई है। उधार लेने वाली कंपनियों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां तेजी से बढ़ीं। ऐसे में बैंकों को परेशानी हुई। लोग उन्हें बचाने के लिए घिरे हुए थे। बैंक खाता खुलवाना और उसमें न्यूनतम राशि रखना अनिवार्य कर दिया गया।

उन्होंने आगे कहा…
पाकिस्तान और चीन को सबक सिखाएंगे,
लेकिन हमने…
घाटी में जवानों को श्रद्धांजलि देने का सिलसिला जारी रखा!
सितंबर 2016 में सरकार ने कहा कि हमने सर्जिकल स्ट्राइक की है। सर्जिकल स्ट्राइक के ठीक दो महीने बाद नवंबर में, आतंकवादियों ने नगरोटा में एक भारतीय सेना के अड्डे पर हमला किया, जिसमें सेना के दो अधिकारी और पांच जवान मारे गए। सरकार ने इसके बारे में क्या किया? कुछ नहीं! उरी हमले के जवाब में कथित तौर पर किए गए सर्जिकल स्ट्राइक की तुलना में नगरोटा एक अधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य था। यह भारतीय सेना के 16वें डिवीजन का मुख्यालय है। 2017 से 2018 के बीच सीमा पार से कई घातक हमले हुए। इसमें फरवरी 2018 में जम्मू शहर के बाहर सुंजुवां कैंप पर हुआ हमला भी शामिल है। इस हमले में 11 जवान शहीद हो गए थे। पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में 15 जून 2020 को भारत-चीन सैनिकों के बीच हुई खूनी झड़प में भारत के 20 जवान शहीद हो गए थे। हालाँकि उसके बाद कहीं भी पारंपरिक’ सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में नहीं सुना जाता है। अब 2019 के लोकसभा चुनाव में जीत के बाद से पाकिस्तान के मुद्दे पर यह सरकार बात तक नहीं कर रही है। कोरोना काल खत्म होने के बाद से अब तक चीन को भी सरकार की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला है। अब से शायद एक साल बाद चुनाव होने वाले हैं, तो कुछ दिनों के भीतर पाकिस्तान और चीन के मुद्दे पर एक बार फिर जुबानी-जंग हो सकती है।

हालांकि इन सभी प्रचार तकनीकों की सावधानीपूर्वक योजना और सभी योजनाओं की तैयारी 2010 से ही शुरू हो गई थी। उस लिहाज से संघ-भाजपा ने पिछले कई सालों में बेहद शांत दिमाग से जो ‘नेटवर्क’ बनाया था, वह काम आया। इसी तरह, मोदी द्वारा प्रवर्तित ‘गुजरात मॉडल’ ने, विशेष रूप से मध्यम वर्ग के बीच, देश के तेजी से विकास के भ्रम को जन्म दिया था।

एक ओर जहां देश में सामाजिक समरसता, स्वतंत्रता संग्राम से जीता संविधान और उसके ‘सार्वभौमिक’ मूल्य, राज्यों के अस्तित्व और अधिकारों तथा सभी संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है, बावजूद इसके कि भारत की अर्थव्यवस्था चरमराने की ओर है, मोदी भक्तों को भावनात्मक मुद्दे अहम लगने लगे हैं। मध्य और उच्च मध्य वर्ग एक ‘जन सम्मोहित’ स्थिति में काम कर रहा है, स्थिति की वास्तविकता से इनकार नहीं कर रहा है और इस समृद्ध विश्वास की दुनिया में तैर रहा है कि देश ‘विश्व गुरु’ बनेगा! लोग इस ‘सम्मोहित भ्रमजाल’ में घूम रहे हैं।

सरकार एलआईसी, जीआईसी (जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन), गेल (गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड), भेल, आईडीबीआई, शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, हाईवे, वेयरहाउस, एयरपोर्ट, एयर इंडिया, पवन हंस, इलेक्ट्रिक ट्रांसमिशन लाइन, रेलवे, स्टेडियम, इंडियन ऑयल की पाइपलाइन, मुंद्रा बंदरगाह और कई अन्य गतिविधियों को निजी कंपनियों को सौंप दिया गया। ये सभी कंपनियां जनता के टैक्स के पैसे से जुटाई गयी हैं। हम रिक्शावाले के लिए दो रुपये नहीं छोड़ते, सब्जीवाले के पास तीन-चार रुपये के लिए बहस करते हैं। लेकिन जो सरकार हर चीज पर टैक्स लगाती है, उसके बारे में ‘चूं’ तक नहीं करते…!

दिसंबर 2016 की बात है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में एक परिवर्तन रैली को संबोधित कर रहे थे। अपने जोशीले भाषण में उन्होंने अचानक कहा, ‘हम तो फकीर हैं, झोला लेकर चल पड़ेंगे…’ यह वाक्य आज फिर याद आ गया। 60 महीने में चमत्कार करने का दावा करने वाले 105 महीने से सत्ता में लोटपोट हो रहे हैं।

तथाकथित 56 इंच के सीने वाले नेताओं में चमत्कार करने की बात तो दूर, साधारण प्रेस कांफ्रेंस करने की भी हिम्मत नहीं है। 1100 रुपए का सिलेंडर, पेट्रोल 106 रु., डीजल 93 रुपये, महंगाई दर 10 प्रतिशत सूचकांक से ऊपर, सभी वस्तुएं दोगुनी, तिगुनी और कुछ दस गुना हो गई हैं, महंगाई इतनी बढ़ गई है। ऐसे कठिन समय में अगर डॉ. मनमोहन सिंह जैसा अर्थशास्त्री भारत का प्रधान मंत्री होता, तो देश को कुछ राहत की उम्मीद होती। उन्होंने 2008 में वैश्विक मंदी के दौरान भी भारत को सफलतापूर्वक बचाया था। लेकिन इसके बजाय, नरेंद्र मोदी आज उस स्थिति में हैं और वह एक स्वयंभू फकीर हैं (जैसा कि वे कहते हैं) जो जल्द ही किसी भी समय चलना शुरू कर देंगे। जैसे कि श्रीलंका के अपदस्थ प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे, जो देश को खाई में छोड़कर चले गए, यह हमारे पड़ोस का जीता जागता उदाहरण है।

नौ साल हो गए हैं। नौ साल के इस सफर से यही कहा जा सकता है कि मोदी सरकार और उसकी सेना दसवें साल में अगले पांच साल की ‘व्यवस्था’ करने के लिए बदले की आग फैलाने की तैयारी कर सकती है। अब साफ हो गया है कि पिछले नौ सालों में वोटरों के वोटों पर ‘न्याय’ नहीं बल्कि ‘घात’ किया गया है। आनेवाले दिनों में अगर देशवासी सावधान नहीं हुए, तो देश का भाग्य क्या होगा…!

 

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