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…फिर एक बड़ा धमाका तय है!

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प्रकाश पोहरे, प्रधान संपादक, दैनिक ‘देशोन्नती’, हिंदी दैनिक ‘राष्ट्र प्रकाश’, साप्ताहिक ‘कृष्णकोणती’

राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक प्रश्न धार्मिक उन्माद के पहाड़ तले दब जाते हैं। तरह-तरह के वेश में लड़कर लोग ‘बुद्धि-परीक्षा’ ले रहे हैं। जैसा कि हाल ही में बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री अचानक लोगों का कल्याण (?) करने के लिए प्रकट हुए! बागेश्वर सरकार के दिव्य दरबार में होते हैं बड़े चमत्कार! बागेश्वर सरकार के दरबार में प्रतिदिन हजारों की संख्या में अंधविश्वासी लोग उस चमत्कार की आशा में उमड़ते हैं। अब, धीरेंद्र शास्त्री ने हाल ही में भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने का पांसा फेंका है! इस समय हर जगह वही खबर चल रही है। धीरेंद्र शास्त्री नाम के इस एक ‘महाठग’ लड़के ने लाखों लोगों के दिमाग पर कब्जा कर लिया है। महंगाई के नाम पर चिल्लाने वाले ऐसे ही लोग आजकल साम्प्रदायिक ठगों के जाल में फंस जाते हैं, तो लगता है कि वे ‘महंगाई’ शब्द ही भूल गए हैं। ‘धर्म अफीम की गोली है!’ यह यूं ही नहीं कहा जाता।

2014 में भी देश के वोटरों को इसी तरह अफीम का नशा चढ़ाया गया था। नशे के उस गुन्नाटे में सरकार के सारे ‘जुमले’ हमने पचा लिए। उस समय हम विज्ञापन, झूठे वादे, 15 लाख मिलेंगे, काला धन देश में आयेगा, महंगाई, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य जैसी तमाम बातें भूल चुके थे। हालांकि, वर्तमान में लोगों में भारी असंतोष है। 2014 में केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद से लोगों को अब लगने लगा है कि उनकी जेब 2014 की तरह ही कट गई है। देश में कहीं न कहीं इस असंतोष की चिंगारी को किसी भी समय रोकने और साम्प्रदायिक अफीम का नशा जारी रहने के लिए ही बागेश्वर धाम जैसे ‘बड़बोले बाबा’ अचानक खड़े कर दिए जाते हैं और यह सब सरकार के आशीर्वाद से होता है।

मोदी सरकार जल्द ही सत्ता में नौ साल पूरे कर लेगी। पहले साल से सेट की गई 70 साल की असफलता का स्वर आज भी जारी है। नेहरू परिवार का भले ही देश में सूखा या अकाल पड़ गया हो, फिर भी मोदी सरकार उसे ही दोष देती रहती है। वास्तव में, पांच साल बाद, बड़े अंतर से निर्वाचित होने और ‘सबका साथ, सबका विकास’ के पुराने छंद में ‘सबका विश्वास’ जोड़ने के बाद, लगा था कि यह सरकार अब ‘पिछले सत्तर साल में’ वाक्यांश को हटाकर यह कह कर नई दिशा पकड़ेगी कि ‘पिछले आठ साल में ये हुआ’! लेकिन जो काम पहले सत्तर सालों में सरकारों ने नहीं किया, वो पिछले नौ साल में सत्ता में रही सरकार ने किया। यानी बिना जाने ही लोगों की जेब काटने की शुरुआत हो गयी है।

वर्तमान स्थिति में पेट्रोल 106 रुपये और डीजल 93 रु. प्रति लीटर है. वर्ष 2014 से पहले तत्कालीन यूपीए सरकार के खिलाफ ‘गली’ से ‘दिल्ली’ तक भाजपा नेता और कार्यकर्ता सड़कों पर उतरते थे। हालांकि आज ये सभी नेता इन मुद्दों से भागते नजर आते हैं। आज रोजमर्रा की जरूरत की सभी चीजों की महंगाई चरम सीमा पर पहुंच गई है। कृषि उत्पादों के अलावा अन्य आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं। रोजगार की समस्या उत्पन्न हो चुकी है और हाथ में पैसा नहीं है और मंहगाई का प्रकोप है, इसने आम नागरिक को झकझोर कर रख दिया है। इसलिए यह समीक्षा करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि 2014 से पहले और अब की स्थिति में वास्तव में क्या अंतर है!

▪️2014 से पहले और अब कमोडिटी की कीमतों में अंतर
• 2014 से पहले सीमेंट की कीमत 195 रुपये बैग थी, वर्तमान में 50 किलो सीमेंट के एक बैग की कीमत 415 रुपये है।
• देश में स्टील की कीमतों में 2014 की तुलना में लगभग 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. स्टील की मौजूदा कीमत 62,000 रुपये से 64,000 रुपये प्रति टन है। 2014 से पहले स्टील 37,000 से 39,000 रुपये प्रति टन था। चूंकि सीमेंट और स्टील किसी भी निर्माण के लिए आवश्यक सामग्री हैं, जब उनकी कीमतें बढ़ती हैं, तो अन्य सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। जब स्टील की कीमतें 10 प्रतिशत बढ़ती हैं, तो घर की कीमतें आधा प्रतिशत बढ़ जाती है।

• 1500 रुपये में मिलनेवाली रेत की एक ट्रॉली अब परिवहन सहित 8,000 रुपये में मिल रही है।
• 2014 से पहले एक मोटरसाइकिल की कीमत 50,000 रुपये थी, अब यह 90,000 रुपये से 1 लाख रुपये की हो गई है।
• 2014 से पहले मेडिक्लेम बीमा 1049 रुपये प्रति 1 लाख रुपये था, अब यह 4100 रुपये का हो गया है।
• पहले डिश रिचार्ज 110 रुपये का था, अब यह 450 रुपये का है।
• 350 रुपए में मिलने वाला गैस सिलेंडर अब 1100 रुपए के ऊपर पहुंच गया है। उस समय गैस सब्सिडी 250 रुपये थी, अब शून्य रुपये यानी कुछ भी नहीं है।
• पहले वाहन नियमों के उल्लंघन पर 100 रुपये का जुर्माना वसूला जाता था, अब 10,000 रुपये का जुर्माना लगाया जाता है।
• 2014 से पहले सिर्फ 250 रुपये में ड्राइविंग लाइसेंस बनवाया जाता था, अब इसकी कीमत 5500 रुपये है।
• पहले घरेलू बंदूकें 1000 रुपये में नूतनीकरण होती थीं, अब 6,000 रुपये लगते हैं।
• पहले रेलवे प्लेटफार्म टिकट 5 रुपये का था, अब 10 रुपये का हो गया है।
• 2014 में 3 इंच के पीवीसी पाइप की कीमत 314 रुपये थी और अब इसकी कीमत 500 रुपये है, साथ ही डीएपी खाद के एक बैग की कीमत 620 रुपये थी और अब इसकी कीमत 1350 रुपये है।
• 50 हॉर्स पावर के ट्रैक्टर की कीमत पहले 6 लाख 40,000 रुपये थी, अब यह 8 लाख 10,000 रुपये का हो गया है।
• वर्ष 2014 के पूर्व केरोसिन रु. 20 प्रलि था, अब यह 60 रुपये प्रलि हो गया है। इतना ही नहीं, अब यह मिलना भी बंद हो गया है।
• पहले मोबाइल इनकमिंग फ्री थी, अब एक्टिवेशन के लिए 99 रुपये प्रति माह देना पड़ता है।
• पहले एटीएम निकासी शुल्क शून्य रुपये था, अब तीन से अधिक निकासी पर हर बार 20 रुपये का शुल्क लगेगा। अन्य शुल्क बैंकिंग सेवाओं के लिए अलग से लगाए जाते हैं।

अगर वे आत्मावलोकन करें कि पिछले छह-सात वर्षों में इस सरकार ने इन कीमतों को कितना बढ़ाया है, तो उन्हें अपने प्रचार की निरर्थकता दिखाई देगी। मोदी सरकार ने जनता को अपनी मर्जी से लूटने के लिए एक भी हथियार नहीं छोड़ा है।
दूसरी ओर सरकार ने देश पर कर्ज का पहाड़ खड़ा कर दिया है। जून 2014 तक केंद्र सरकार पर कुल 54,90,763 करोड़ रुपये का कर्ज था। यह कर्ज 60 साल के लिए था। 2014 के बाद दिसंबर 2022 तक भारत का कुल सार्वजनिक कर्ज का आंकड़ा 147.19 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया है।

2014 के बाद गरीबी में भी नाटकीय रूप से वृद्धि हुई। 2014 से पहले 40 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे थे, अब 80 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गए हैं। 2014 से पहले देश की जीडीपी (विकास दर) 11 फीसदी से ज्यादा थी, अब माइनस 1.5 फीसदी है। विभिन्न संगठनों के आँकड़ों के अनुसार 2014 से पहले बेरोजगारी दर 2 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 22 प्रतिशत से अधिक हो गई है।

मोदी सरकार की ऐसी दिशाहीन आर्थिक नीति से उद्योग, कृषि क्षेत्र संकट में है और बेरोजगारी भी बढ़ी है। क्या सरकार के पास इसका तर्कसंगत जवाब है कि इस स्थिति में ‘सबका साथ सबका विकास’ कैसे होगा?
‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ यह केवल बोलने की बात साबित हुई। दरअसल, मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के बाद से देश में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेजी से शुरू हुई है और अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष पद से गृह मंत्री के पद पर आने के बाद इसे और तेजी और संरक्षण मिल रहा है। पुलवामा, अनुच्छेद 370, हिजाब, तीन तलाक और उससे पहले नागरिकता विधेयक और अब बोहरा मुसलमानों और पसमांदा मुसलमानों के वोटों का गणित जमाने की मोदी की ‘रणनीति’, ये सारी बातें ही हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को उजागर करती हैं।

दूसरी ओर, सरकार हर दिन पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था के सपने दिखा रही है, भले ही अर्थव्यवस्था के तीन-तेरह हो रहे हों! नोटबंदी, जीएसटी, बैंक लोन घोटाले, इसमें फंसे बड़े-बड़े उद्योग समूह, वहीं आज ‘हिंडनबर्ग रिसर्च’ से घिरा अडानी समूह, इन सबकी रक्षा करते हुए इस सरकार ने स्टेट बैंक और एलआईसी जैसे सरकारी उपक्रमों से इस नुकसान की भरपाई के लिए एक नया कदम उठाया है। निजी उद्यमों की खामियों और झूठ को छिपाने के लिए लोगों के पैसे का इस्तेमाल करना अपवाद के बजाय नियम बनता जा रहा है। इतिहास के स्नातक को रिजर्व बैंक का गवर्नर बना चुकी इस सरकार की वित्तीय निरक्षरता दिन-ब-दिन उजागर होती जा रही है।

मूल रूप से देश कभी भी नए शासकों के साथ नहीं था, जैसा कि वे दावे करते रहे। उनके सत्ता में आने के कई पहलू हैं, साथ ही कारण भी। पहले पांच साल लोग इंतजार कर रहे थे, नए होने के नाते उनकी भूमिका उन्हें पर्याप्त अवसर देने की थी। शासकों ने जनता को हल्के में लेने की गलती की। कई लोग इस बनावट को साफ देख सकते थे। बहुतों ने अब यह सब देख लिया है। बहुत से लोग कुछ और समय के साथ समझ जाएंगे।

अयोध्या विवाद के बाद देश में वाजपेयी सरकार आई थी। भले ही वह धार्मिक उन्माद की पृष्ठभूमि में सत्ता में आए, लेकिन वे विचारों और कार्यों में कई तरह से व्यापक थे। शिवसेना-बीजेपी की सरकार भी महाराष्ट्र में 92 दंगों की पृष्ठभूमि में सत्ता में आई। दोनों केवल पांच साल सत्ता में रहे। तब कांग्रेस देश में दस साल और प्रदेश में 15 साल सत्ता में रही। उसके लिए मोदी जैसा नियोजन, मीडिया के सहारे और दबंगई की जरूरत नहीं पड़ी। क्योंकि धार्मिक रंग तुरंत चढ़ता है और वह तुरंत उतर भी जाता है।

पाकिस्तान के साथ सीमा पर एक धार्मिक मुद्दा है, लेकिन चीन के साथ यह नहीं चल सकता। क्योंकि चीन उनसे भी ज्यादा झूठा है। तो अब झूठी वीरता की बात भी बेमानी हो जाती है। बहुत से लोगों को लगता है कि राम मंदिर का मुद्दा खत्म हो गया है। अब भावनात्मक मुद्दे ही काफी हैं। कुछ काम करो, समस्या का समाधान करो, महंगाई पर काबू पाओ, युवाओं को रोजगार दो। व्यापारियों का धंधा चलने दो, किसानों के माल का दाम दो, या सिर्फ मंहगाई बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि कृषि उपज को बढ़ाने के लिए, जो सबके जीने के लिए जरूरी है, देश में अमन-चैन रहे। ऐसी मांगों को लेकर आवाजें दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं। लेकिन इस पर काम होता नहीं दिख रहा है। और ऐसा होगा भी नहीं। क्योंकि ऐसे विचार और ऐसी योजनाएं शासकों के पास नहीं हैं और न कभी थीं!

मोदी सरकार और मोदी खुद आलोचना, समीक्षा, विश्लेषण, जवाबदेही जैसे शब्दों से नफरत करते हैं। पिछले नौ साल से सरकार एक ही जवाब दे रही है, ऐसा करने वालों या सरकार से जवाब मांगने वालों को ‘देशद्रोही’ करार दिया जाता है। कभी तो इस घमंड और अहंकार के पीछे की हकीकत सामने आएगी, तब पता चलेगा कि यह देश तमाम मोर्चों पर कितना रसातल में जा चुका है। देश को बचाने के लिए वह रेला निश्चित रूप से तेजी से आगे बढ़ेगा। इस सरकार में सकारात्मकता बिल्कुल नहीं है, नकारात्मकता बहुत है, लेकिन इसकी अतिरिक्त खुराक अब भूख और महंगाई से जूझ रहे लोगों को हजम नहीं हो रही है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो जन असंतोष का एक बड़ा विस्फोट तय है!

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