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अमानवीय घटनाओं पर भी राजनीति…

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

बदलापुर में दो छोटी बच्चियों के साथ यौन उत्पीड़न किया गया। 13 अगस्त को हुई इस घटना से महाराष्ट्र हिल गया। इस मामले में 20 अगस्त से पूरे राज्य में भारी जनाक्रोश देखने को मिल रहा है। बदलापुर, आलंदी, कोल्हापुर, दौंड, कोलकाता और कई अन्य स्थानों पर हुई घटनाओं ने हमें एक प्रकार का झटका दिया है। ऐसी घटनाओं की खबरें चौंकाने वाली हैं। लेकिन हमारे समाज में एक ऐसा ‘वायरस’ घुस आया है, जिसके कारण हिंसा, अत्याचार आदि देखने को मिलने लगे हैं। परिणामस्वरूप, हम इस बात पर प्रतिक्रिया करने लगे हैं कि ‘किसने’ अमानवीय कृत्य किया है। हर चीज़ को ‘हम’ और ‘वे’ के मानसिक विभाजन की कसौटी पर आधारित करने की कोशिश की जा रही है। जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा और सबसे आक्रामक रूप से पार्टी के आधार पर यह तय किया जाता है कि किस पक्ष में खड़ा होना है। यदि ‘हमारे’ लोगों ने कोई बुरा कार्य किया होता, तो वे उसके समर्थन में तर्क देते और यदि ‘उन्होंने’ किया होता, तो उस पर हंगामा करते! परिस्थिति के अनुसार ‘हम’ और ‘वे’ की परिभाषाएँ बदलती रहती हैं। लेकिन अभी भी ऐसी घटनाओं के बारे में सुनकर जब कुछ होता है, तो लोग सबसे पहले यही देखते हैं कि इसका कारण कौन है! वे देखते हैं कि ‘उत्पीड़क हमारे हैं’ या ‘पीड़ित हमारे हैं’। उसी के अनुसार भूमिकाएँ तय की जाती हैं। सभी लोग इतने असंवेदनशील नहीं होते, लेकिन ये सच है कि हाल के दिनों में ऐसे लोगों की संख्या काफी बढ़ी है।

बदलापुर हो या हाल ही में घटित कोलकाता की घटना। एक अति संवेदनशील सामाजिक मन जागृत हुआ। साथ ही शासकों के विरोधियों को विरोध का एक नया हथियार भी मिल गया। हालाँकि, यह ऐसी घटनाओं को राजनीति से जोड़ने का समय नहीं है। जिस तरह से बदलापुर मामले को लेकर राज्य के लगभग सभी सामाजिक संगठन, सभी विपक्षी दल, आम लोग सड़कों पर उतर आये हैं, लेकिन इसके बावजूद सत्ताधारी राजनीतिक दलों का दिल नहीं पसीज रहा है। राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा, शिव सेना शिंदे गुट, राष्ट्रवादी अजित पवार गुट में से किसी ने भी इस घटना पर साधारण विरोध व्यक्त नहीं किया। अमानवीय घटनाओं के प्रति यह ‘स्वार्थी’ रवैया उन घटनाओं की तरह ही चौंकाने वाला है। एक समाज के तौर पर विभिन्न कोणों और परतों की जांच किए बिना किसी भी घटना को ‘अपने’ और ‘पराए’ के चश्मे से देखना खतरनाक है। यह न्याय की अवधारणा को ही पराजित करता है। सत्ता में कोई भी पार्टी हो, नेता किसी भी जाति या पार्टी का हो, वह संविधान के दायरे में रहकर काम करता है या नहीं, लोगों को समान न्याय, अवसर और अधिकार देता है या नहीं, यह महत्वपूर्ण है। जो नेता इस न्यूनतम अपेक्षा पर खरा नहीं उतरता, चाहे वह नेता किसी भी दल, विचारधारा, धर्म, क्षेत्र, भाषा का हो; इसे खारिज किया जाना चाहिए।

इसमें एक बात विशेष रूप से स्पष्ट है कि जब ऐसी घटनाएं होती हैं, तो राजनीतिक दल और उनकी तैनात सेनाएं एक-दूसरे पर हमलावर हो जाती हैं। वे पुराने बहानों से अपने कुकर्मों को छिपाने की कोशिश करते हैं। भाजपा वाले कांग्रेस के मामलों का फायदा उठाते हैं और कांग्रेस वाले भाजपा का। पार्टियों की ये लड़ाई एक स्तर पर ‘फेस सेविंग’ की होती है। यदि लोग लड़ाई को तटस्थ होकर देखें और निर्णय लें, तो वे पक्षपाती हो सकते हैं। लेकिन अब लोग भी पार्टी तैनाती बलों के भागीदार बन गए हैं। इस कारण अब कोई भूल, महाभूल होने पर भी पार्टियाँ और उनके नेता जनमत को गुमराह करने से नहीं डरते। अगर अपने शासनकाल में बदलापुर की घटना हुई या कोलकाता की घटना हुई, तो मामले की गंभीरता को समझे बिना आपकी सरकार में हुई ‘निर्भया’ जैसी प्रतिक्रियाएं भी सोशल मीडिया पर देखने को मिलती हैं। इस प्रकार की असंवेदनशीलता निश्चित रूप से संसदीय लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक घटनाक्रम है।

पिछले कुछ सालों में कुछ गंभीर घटनाएं घटी हैं, जो दिमाग को सुन्न कर देने वाली हैं…

1) उत्तर प्रदेश के उन्नाव में महज 13 साल की बच्ची से रेप की वारदात को अंजाम दिया गया। रेप के बाद लड़की के लिए न्याय मांगने वाले पिता को भी जला दिया गया। आरोपी बीजेपी विधायक कुलदीप सेंगर थे। अधिकारियों ने इस कमीने को बचाने की आखिरी दम तक कोशिश की। आरोप साबित होने पर उन्हें इसे हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

2) उत्तर प्रदेश के हाथरस में 19 साल की लड़की से रेप किया गया। लड़की चमार यानी दलित थी। बलात्कारी ऊंची जाति के थे। लड़की की दो हफ्ते बाद अस्पताल में मौत हो जाती है। केस दबाने के लिए लड़की के शरीर को तुरंत जला दिया गया।

3) कश्मीर के कठुवा में एक 8 वर्षीय मुस्लिम लड़की के साथ बलात्कार किया गया था, वह भी कई बार और कई दिनों तक। वो भी एक मंदिर में। बलात्कारी सूअरों के समर्थन में पूरे देश में प्रदर्शन हुए और भाजपा नेता इसमें खुलेआम शामिल हुए।

4) गुजरात दंगों में बिलकिस बानो के बलात्कार के आरोपियों को गुजरात चुनाव के दौरान जेल से रिहा कर दिया गया और सबसे अपमानजनक बात यह थी कि उन्हें हार-फूल देकर सम्मानित किया गया।

5) बलात्कारी गुरमीत राम रहीम को लगता है कि जेलर ने ही उसे जेल की चाबी दे दी है। वह जब चाहे बाहर आ जाता है।

6) पहलवान युवतियों ने महानीच बृजभूषण का विरोध किया। इस विकृत इन्सान के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं किया गया। दूसरी ओर, समाज के दुष्टो ने पहलवान लड़कियों के चरित्र का हनन किया।

इसके बाद आता है यह मुर्दा समाज! जो मीडिया में प्रचार देख कर प्रतिक्रिया देता है। ऐसे लोग मोबाइल पर अपने सोशल मीडिया अकाउंट में काली डीपी लगाते हैं और सोचते हैं कि चार पोस्ट साझा करके वे जागृत हो गए हैं। वस्तुतः यह समाज पूर्णतः मुर्दा एवं पाखंडी है। आज का समाज चीजों को पूरी तरह से राजनीतिक, जातीयता और कट्टरता के चश्मे से देखता है और फिर तय करता है कि आक्रोश में शामिल होना है या नहीं!

कोलकाता के ताजा मामले में पीड़िता पश्चिम बंगाल की है, इसलिए मीडिया आगबबूला है। अगर उत्तर प्रदेश में भी ऐसा ही होता, तो आरोपियों के समर्थन में मार्च निकल जाते और पीड़िता का चरित्र परीक्षण शुरू हो जाता। विनेश का उदाहरण बिल्कुल ताज़ा है। इसके अलावा मुझे इस बात पर भी शक है कि अगर लड़की दलित होती तो क्या लोग नींद से जागते? मुझे उन लोगों से नफरत है, जो रुझानों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। मैसेज पढ़ने के बाद ही वे ऐसे-वैसे हो जाते हैं।

हमारा समाज, जिसे हम सभ्य समाज कहते हैं, बुरी तरह भ्रष्ट हो चुका है। निर्भया कानून के बावजूद ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति हमारे समाज के नैतिक मूल्यों पर सवाल उठाती है। अब ऐसा लगता है कि हम सत्य, निष्ठा, करुणा, सहयोग, सम्मान, ईमानदारी, देशभक्ति जैसे मूल्यों को भूल गए हैं। यह बताते हुए अफसोस हो रहा है कि नैतिक मूल्य सिर्फ कागजों पर ही रह गए हैं। आज के प्रतिस्पर्धी युग में हम ज्ञान अर्जन पर तो जोर देते हैं, लेकिन मूल्यपरक शिक्षा पूरी तरह उपेक्षित है। हम इतने स्वार्थी हो गये हैं कि अपने बच्चों को अच्छा नागरिक बनाने का कोई मतलब ही नहीं रह गया है।

जिन स्कूलों को हम ज्ञान के मंदिर कहते हैं, वहां लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं बहुत दर्दनाक हैं और समाज की मूल्य प्रणालियों पर सवाल उठाती हैं। यहां तक ​​कि शिक्षण संस्थान भी अपने संस्थान की बदनामी से बचने के लिए दोषी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय अपने छात्रों के साथ छेड़छाड़ के मामलों को दबाने में खुश रहते हैं। शिक्षा क्षेत्र में यह एक गंभीर मुद्दा है कि शिक्षण संस्थान अपने छात्रों की सुरक्षा से ज्यादा अपनी छवि को लेकर चिंतित रहते हैं। क्या हमारे संस्थान की छवि एक विकृत व्यक्ति द्वारा हमारे छात्रों के साथ किए गए दुर्व्यवहार से भी बड़ी हो सकती है? यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रबंधन को इसकी जानकारी तक नहीं है। स्कूल प्रशासन का यह कृत्य न सिर्फ एक लड़की की जिंदगी के साथ खिलवाड़ है, बल्कि समाज के भविष्य के साथ भी खिलवाड़ है। अगर बेटियों को सुरक्षित माहौल नहीं मिलेगा, तो देश का भविष्य कैसे उज्ज्वल होगा?

महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए सख्त कानूनों के बावजूद उन्हें प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जाता है। फरियादियों की शिकायतों को पुलिस गंभीरता से नहीं लेती। इससे जांच प्रक्रिया धीमी हो जाती है और साक्ष्य नष्ट होने का खतरा बढ़ जाता है। भ्रष्टाचार के कारण अपराधी पैसे लेकर भाग जाते हैं और महिला पीड़ितों को न्याय मिलना कठिन हो जाता है। कुछ लोग अपनी राजनीतिक शक्ति का उपयोग महिलाओं के खिलाफ हिंसा को छिपाने के लिए करते हैं। समाज में अपनी छवि और प्रतिष्ठा की रक्षा के नाम पर अक्सर अपराध दर्ज करने में रुकावटें डाली जाती हैं, पुलिस पर अपराध दर्ज करने से बचने का दबाव बनाया जाता है। पुलिस व्यवस्था राजनीतिक दबाव के आगे झुक जाती है और जांच में बाधा आती है और अक्सर अपराधियों को पकड़ से बाहर निकालने के लिए फर्जी पंचनामा का इस्तेमाल किया जाता है। प्रभावशाली लोगों पर एफआईआर दर्ज करना और उन पर मुकदमा चलाना कठिन होता जा रहा है। इससे पीड़ित महिलाओं को न्याय मिलना मुश्किल हो जाता है और अक्सर उन्हें ही समाज में बदनामी का सामना करना पड़ता है।

न्यायपालिका में कर्मचारियों की कमी और उन पर काम के बोझ के कारण मामलों में देरी हो रही है। अदालतों में लंबित मामलों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। इससे पीड़ित को न्याय मिलने में वर्षों लग जाते हैं। ‘न्याय में देरी, न्याय न मिलने के समान है’…. यही सब हो रहा है। न्याय में देरी के कारण पीड़ित का मानसिक स्वास्थ्य ख़राब हो जाता है।

न्याय में देरी के कारण पीड़ित का मानसिक स्वास्थ्य ख़राब हो जाता है। न्यायपालिका में पारदर्शिता, निष्पक्षता और न्याय की लागत भी आम लोगों का न्यायपालिका पर विश्वास कम कर रही है। अपराधियों को कड़ी सज़ा नहीं मिलती, इससे दूसरों को अपराध करने के लिए बढ़ावा मिलता है।

ऐसी घटनाओं से समाज कुछ समय के लिए झकझोर कर जाग तो जाता है, लेकिन जल्द ही फिर सो जाता है। अब समय आ गया है कि समाज का हर व्यक्ति ऐसे विषय पर जागरूक हो। हमारी भावी पीढ़ी को सुरक्षित वातावरण उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। अगर हमारी आने वाली पीढ़ियां सुरक्षित रहेंगी, तो समाज का भविष्य उज्जवल होगा। शिक्षा के साथ-साथ भावी पीढ़ी को शिक्षित करना भी जरूरी है। समाज निर्माण में हमसे जो गलतियां हुई हैं, उन्हें सुधारने का यही सही समय है।

लेखक: प्रकाश पोहरे
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(प्रकाश पोहरे से सीधे 98225 93921 पर संपर्क करें या इसी व्हाट्सएप नंबर पर अपनी प्रतिक्रिया भेजें। कृपया प्रतिक्रिया देते समय अपना नाम-पता लिखना न भूलें)

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