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आधुनिक विवाह, या विवाह बाज़ार?

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

हाल ही में हुए एक सर्वे के मुताबिक, भारत में एक साल में शादियों पर खर्च होने वाली रकम कई देशों की जीडीपी से भी ज्यादा है!

सनातन में विवाह एक संस्कार था जो अब एक इवेंट (आयोजन) बन गया है। अतीत में, विवाह समारोह एक पवित्र अनुष्ठान था, जो दो व्यक्तियों के जुड़ने का प्रतीक था। वे रीति-रिवाज और अनुष्ठान जिनके माध्यम से दोनों पक्ष एक-दूसरे को जानते थे, और विवाह भी सम्मान का विषय था।

पहले हल्दी, मेहंदी के कार्यक्रम सब घर पर ही होते थे और किसी को पता नहीं चलता था। इससे पहले मंडप में होने वाली कोई भी धूमधाम वाली शादी भी शादी ही होती थी और तब वैवाहिक जीवन बेहद खुशहाल होता था। लेकिन समाज और सोशल मीडिया पर दिखावे (शोबाजी) का भूत इस कदर सवार है कि कोई नहीं जानता कि क्या करें और क्या न करें…!

लोगों ने यह दिखाने के लिए कि वे एक-दूसरे से अधिक आधुनिक और अमीर हैं, अत्यधिक प्रदर्शन शुरू कर दिया है और अब इसमें एक घातक प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है।

क्या अड़तालीस किलो की लड़की को पच्चीस किलो का लहंगा भारी नहीं लगेगा? ये ख्याल कभी किसी के मन में नहीं आया। बाहरवालों की छोड़िए, मां-बाप को भी इस बात का एहसास नहीं होता।

हमारे माता-पिता की अच्छी शिक्षाओं की तुलना में कई किलो का मेकअप हल्का लगता है। हर कार्यक्रम में घंटों फोटोशूट कराते नहीं थकने वालों को भी तब शर्म नहीं आती जब शादी समारोह शुरू होते ही वे कहते हैं कि पंडित जी, जल्दी करो, कितनी लंबी पूजा है ये! यह दुनिया का आठवां अजूबा लगता है। आजकल लोगों को इस बात का एहसास नहीं है कि शादी एक रस्म है, कोई मौज-मस्ती का कार्यक्रम नहीं! समाज इतना संवेदनहीन हो गया है कि अगर कोई साधारण तरीके से शादी कर लेता है, तो वह समाज में आलोचना का विषय बन जाता है। मुझे नहीं लगता कि नेताओं, मशहूर हस्तियों की नकल करना और उनके जैसे कार्यक्रम बनाना और अपना शेष जीवन कर्ज चुकाने में बिताना बहुत अच्छा है और यह एक बड़ा तथ्य है कि आजकल शादियां लंबे समय तक नहीं टिकती हैं।

आज की शादियाँ अद्भुत हैं, दिलचस्प बात यह है कि यह एक सामाजिक दायित्व बनता जा रहा है। उत्तर भारत में शादियों में फिजूलखर्ची धीरे-धीरे चरम पर पहुंच गई है और अब इसमें महाराष्ट्र भी सबसे अग्रसर हो रहा है।

पहले शादियां, जयमालाएं सब कुछ मंडप में होता था। ये सारी चीजें एक ही सांचे में, एक ही मंगल कार्यालय (मंडप) में होती थीं, लेकिन अब अलग-अलग स्टेज पर होती है। इससे शादी की लागत बढ़ गई है। अब तो हल्दी और मेहंदी जैसे इवेंट्स (आयोजनों) के दाम भी बढ़ गए हैं। प्री-वेडिंग फोटोशूट, डेस्टिनेशन वेडिंग, रिसेप्शन और अब ग्रैंड इंगेजमेंट का दौर तैयार हो रहा है। टीवी सीरीज देखने में हर किसी की दिलचस्पी होती है। पहले बच्चे पुराने कपड़े पहनकर हल्दी में बैठते थे, अब हल्दी वाले कपड़े की कीमत पांच से दस हजार रुपये हो गयी है। यहां तक ​​कि कट-टू-कट मैचिंग भी देखा जाने लगा है।

प्री वेडिंग शूट, फ़र्स्ट कॉपी डिज़ाइनर लहंगा, हल्दी/मेहंदी के लिए थीम पार्टी, लेडीज़ संगीत पार्टी, बैचलर पार्टी, ये सब माता-पिता द्वारा इस तरह से खर्च किया जाता है, जिससे लड़की को गर्व महसूस हो!

लड़की के पिता अगर खर्च में कटौती करने लगे, तो उनकी बेटी कहती है कि शादी एक बार होती है और लड़के का भी कहना ऐसा ही होता हैं, लेकिन ये हमारा दुर्भाग्य ही है कि इतना खर्च करने के बाद भी शादी को बनाए रखने की कोशिश कोई नहीं कर पाता!

मजेदार बात तो यह है कि लड़का-लड़की खुद भी खूब फिल्मी तामझाम चाहते हैं, चाहे प्री-वेडिंग शूट हो या महिला संगीत, इस पर कोई नियंत्रण नहीं है। लड़की का भविष्य सुरक्षित करने के बजाय वे पैसा पानी की तरह बहाते हैं। अब लड़के-लड़कियों को अपने माता-पिता से खर्चे का पैसा स्वयं मिलता है। लेकिन जबकि माता-पिता इतना पैसा खर्च कर रहे हैं, वे अपने बच्चों को इसके महत्व के बारे में नहीं समझाते हैं। इससे होने वाले लाखों रुपये के नुकसान से बच्चों को कोई फर्क नहीं पड़ता।

लड़कों के परिवार भी शादी पर उतना ही खर्च कर रहे हैं, जितना लड़कियों के परिवार वाले करते हैं। दोनों अपना दिखावा बरकरार रखने के लिए कर्ज लेकर समारोह मना रहे हैं।

इटालियन, दक्षिण और उत्तर भारतीय, कॉन्टिनेंटल व्यंजन, पनीर कभी अमीरों और संभ्रांत लोगों का पसंदीदा भोजन था, लेकिन अब मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग भी इन्हें अपना रहा है। रिश्ते की मिठास ख़त्म हो गई है और ये सब ड्रामा शुरू हो गया है। इसमें एक मजबूत हो और दूसरा कमजोर हो, तो वह भी गेंहू में घुन की तरह पिसा जा रहा है।

अब शादी के बाद ग्रैंड रिसेप्शन का क्रेज तेजी से बढ़ रहा है। धीरे-धीरे एक-दूसरे से बड़ा दिखने की होड़ एक सामाजिक मजबूरी बनती जा रही है। इन सब में मध्यमवर्गीय परिवारों को परेशानी हो रही है। क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करेंगे, तो वे समाज में हंसी का पात्र बन सकते हैं। इसमें सोशल मीडिया और वेडिंग बिजनेस कंपनियां (इवेंट मैनेजमेंट) प्रमुख भूमिका निभा रही हैं। यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, तो लोग क्या कहेंगे/पूछेंगे? इसका डर ही आपको यह सब करने पर मजबूर करता है और लोग इसके बारे में बात करते हैं…

उस पिता या माँ को कोई नहीं पूछता, जो परिवार को खुश रखने के लिए जीवन भर मेहनत करके पैसे कमाता है। बुढ़ापे में कोई उनसे पूछेगा, ‘आपने हमारे लिए क्या किया?’ इसी डर की वजह से वह यह सब धन की बर्बादी करता है। ऐसे गलत विचारों से बर्बाद हो रहे समाज को सतर्क करने की तत्काल आवश्यकता है, अन्यथा असीमित धन का बढ़ता बोझ वैदिक विवाह संस्कार को नष्ट कर देगा और फिर विवाह महज एक इवेंट जैसे ही मनाया जाएगा और इसकी मधुरता, पवित्रता, धार्मिकता धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी!

सवाल गंभीर और सामाजिक है लेकिन इस पर सोचने की फुर्सत किसी के पास नहीं है।

समाज के पतन की ओर बढ़ रही इस गति को रोकना आवश्यक है। विवाह समारोह के अवसर पर दोस्तों का जमावड़ा, खुशियाँ भरी बातचीत, खेती के सामान की कीमत, नई जाति, राजनीति, सामाजिक मुद्दे आज से दस-पाँच साल पहले हुआ करते थे। आजकल शादियां ढाई से तीन घंटे देरी से हो रही हैं, फिर पता नहीं हम शुभमुहूर्त और लग्नतिथि क्यों निकालते हैं? ऑर्केस्ट्रा और डीजे के प्रभाव से कान बहरे हो जाते हैं और दिल की धड़कन तेज हो जाती है। किसी से बात नहीं कर सकते, सवाल नहीं पूछ सकते, कोई फोन नहीं उठा सकते। हाल ही में सभी समाजों में (मारवाड़ी, ब्राह्मण, गुजराती और सिंधी समाज को छोड़कर) चोर-दरवाजे से अनजाने में कुछ विकृतियाँ ला दी हैं। शौक के नाम पर केवल फिजूलखर्ची और भौंडा प्रदर्शन होने लगा है।

शादी में खाने-पीने के लिए आने वाले बारातियों की नियति उत्पीड़न और निराशा ही होती है। हमारी मेहनत की कमाई किसी के घर का भुगतान करने में बर्बाद हो रही है और समाज की ऊर्जा बर्बाद हो रही है और कर्कश आवाज और अनियंत्रित योजना के कारण, हम अपने प्रियजनों से मिलने की खुशी का आनंद नहीं ले सकते हैं। पुराने दिनों में, सामाजिक संबंध बनाए जाते थे। शादियों का आयोजन, वास्तविक अर्थों में एक-दूसरे को और अधिक करीब से जानने का मौका देता था। चूंकि आजकल, वह अपने ही दायरे में हैं, इसलिए कोई भी किसी से ईमानदारी से सवाल करने को तैयार नहीं है, आतिथ्य सत्कार की बात तो दूर की बात है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि विवाह योग्य बच्चों और उनके माता-पिता की पहचान और अच्छे-बुरे पहलुओं की जांच नहीं की जा सकती। खाना परोसना तो दूर, कतार में जगह ढूंढना या बर्तन साफ़ करना भी एक शर्मनाक काम हो गया है। मेहमानों की भीड़ को नियंत्रित करते-करते, योजना बना रहे आसपास के लोग सचमुच थक जाते हैं, शादी समारोह का आनंद लेना तो दूर, दुल्हन और परिवार के सदस्यों को पूरे दिन अत्यधिक दबाव झेलना पड़ता है। फिर सवाल उठता है कि विराट कोहली पच्चीस लोगों में…. और हमारे साहब अपनी बेटी की शादी में सिर्फ सौ लोगों को आमंत्रित करते हैं, तो फिर अप्रैल और मई की जानलेवा गर्मी में पंद्रह सौ से दस हजार लोगों की इतनी भीड़ इकट्ठा करके हमें क्या हासिल होता है?

सवाल है कि अब क्या करें? जवाब है कि इसे सहन करने के अलावा कोई उपाय नहीं है और हमारी बात कोई नहीं सुनता, लेकिन इस तरह की बातों पर कहीं न कहीं रोक लगनी चाहिए और समग्र समाज की गिरावट पर भी रोक लगनी चाहिए। इसका एकमात्र समाधान यह है कि शुरुआत अपने आप से करें, लेकिन वह दिन शुभ होगा जब अपने परिवार में इस मुद्दे पर आम सहमति बनेगी।

“जो काम हम आम लोग कर सकते हैं, वो सिर्फ खास लोग ही कर सकते हैं” लेकिन फिर, क्या हमें समाज के पुराने और अर्थहीन रीति-रिवाजों को रोकने के लिए वास्तव में एक बड़े आदमी की ज़रूरत है?

क्या हम इसे व्यक्तिगत रूप से बंद कर सकते हैं!
जैसे कि, जब कोई वित्तीय प्रावधान न हो तो अपने परिवार में बड़ी महंगी शादी न करें।
कोई बड़ा आयोजन या कार्यक्रम ना करें।
करीबी रिश्तेदारों को छोड़कर किसी अन्य की तेरहवी में शामिल न हों, क्योंकि तेरहवी कार्यक्रम ही बंद कर देना चाहिए।
जन्मदिन की पार्टी को भव्य न बनाकर इस पैसे को बच्चों की शिक्षा और भविष्य की ज़िम्मेदारियों के लिए बचत में लगाएं।
उन लोगों से ईर्ष्या न करें, जो लाखों रुपये खर्च करके शादी करते हैं।
विवाह में अक्षत लेने से विनम्रतापूर्वक इंकार करके, फूल-पंखुड़ियाँ उपलब्ध न होने पर मंडप में चुपचाप बैठना, लेकिन अक्षत नहीं फेंकना चाहिए।
जहां डीजे बज रहा हो, उस कार्यक्रम को छोड़ देना चाहिए। दूल्हे के सामने समय बर्बाद कर तेज धूप में घंटों नाचने वाली मंडली में गलती से शामिल न हों… राजनीति के नाम पर अपना घर भरने वाले भ्रष्ट नेताओं और उनके दल से सावधान रहें।
क्या वाकई एक बड़े आदमी के लिए ऐसे बदलाव करना ज़रूरी है?
यहाँ आपके बड़े दृष्टिकोण की आवश्यकता है!
शुरुआत अपने आप से करें।
किसी दिन समाज नोटिस करेगा।
शायद इसमें काफी समय लगेगा!
अंधानुकरण करने वाले समाज में कुछ दूरदृष्टा भी होते हैं….!.

-प्रकाश पोहरे
(प्रधान संपादक- दैनिक देशोन्नती, दैनिक राष्ट्रप्रकाश)

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