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इंडिया’ नहीं ‘भारत’! : यह अतिवादी जिद क्यों?

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– प्रकाश पोहरे (सम्पादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिन्दी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

देश में आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर सभी पार्टियां अपनी-अपनी रणनीति बना रही हैं। उसमें विपक्ष द्वारा ‘इंडिया’ फ्रंट बनाने के बाद शासकों के सामने ‘इंडिया’ से लड़ने का बड़ा संकट खड़ा हो गया। इसके बाद ‘इंडिया’ शब्द हटाने का आंदोलन शुरू हो गया। शुरुआत करने के लिए, मोदी सरकार ने जी-20 शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति के निमंत्रणों में से एक पर सामान्य ‘प्रेसीडेंट ऑफ इंडिया’ के बजाय ‘प्रेसीडेंट ऑफ भारत’ शब्दों का उपयोग करके ‘इंडिया’ शब्द को गायब करने का संकेत दिया है। अब ‘इंडिया’ गुलामी का प्रतीक होने के कारण इसे बदलने की बात की जा रही है। तो अगर ‘इंडिया’ शब्द आज गुलामी का प्रतीक बन गया है, तो पिछले नौ वर्षों में ‘इंडिया’ के नाम पर चलाई गई योजनाओं और नारों का क्या?

जैसे स्टार्ट अप इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, शाइनिंग इंडिया, खेलो इंडिया, जीतेगा इंडिया, पढ़ेगा इंडिया, बढ़ेगा इंडिया ….जैसे कई नारे और योजनाएं किसने बनाईं? इतना ही नहीं, इंडिया को जल्द ही ‘भारत’ का फैसला सुनाया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट जल्द ही ‘भारत का सर्वोच्च न्यायालय’ होगा। आईआईटी’ भारत इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ होंगे। बीसीसीआई ‘बोर्ड ऑफ क्रिकेट कंट्रोल ऑफ भारत’ होगा। चंद्रयान का स्वागत भी नवीनतम रूप में किया जाएगा और क्या ‘इसरो’, जिसका महिमामंडन पूरा देश और स्वयं प्रधानमंत्री ने किया, को ‘भारत अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन’ के नए नामों से जाना जाएगा? इससे क्या ‘इंडियन ऑयल’ ‘भारतीय ऑयल’, ‘एयर इंडिया’ ‘हवाई भारत’, ‘कोल इंडिया’ सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी ‘कोल भारत’, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की जगह रिजर्व बैंक ऑफ भारत बन जाएगा? सबसे बड़ी बात यह कि ‘इंडिया’ शब्द छपे नोटों का क्या होगा? इन तमाम सवालों से लोगों का सिर घूम रहा है। क्या इस चर्चा से पहले देश की जनता के सारे गंभीर सवाल ख़त्म हो गए हैं? ऐसा लगता है! हालांकि, असली मुद्दा सिर्फ नाम का नहीं, बल्कि एक ही नाम की जिद का है।

मूल मुद्दा यह है कि भाजपा ने पिछले नौ वर्षों से देश पर शासन किया है, भाजपा सरकार की नीतियां ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ को बढ़ावा दे रही हैं। भाजपा सरकार लोकतांत्रिक अधिकारों को भी कुचल रही है। उनकी राजनीति राम मंदिर, लव जिहाद, गाय, बीफ और पहचान के मुद्दों आदि के इर्द-गिर्द घूमती है। चाहे वह नोटबंदी हो, जीएसटी हो, कुछ घंटों के नोटिस पर देश भर में सख्त लॉकडाउन लगाने का फैसला हो, बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई हो या दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचार- आम आदमी को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

बीजेपी आज देश की सबसे अमीर पार्टी बन गयी है, उन्होंने चुनावी बांड के जरिये भारी मात्रा में धन इकट्ठा किया है। पीएम केयर फंड, पार्टी का खजाना भरने का जरिया बन गया है। इसके अलावा, पार्टी के पास आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के लाखों कार्यकर्ताओं के रूप में प्रचारकों की एक बड़ी सेना है। ये सभी चुनाव के दौरान बीजेपी के लिए काम करते हैं। अब अगले लोकसभा चुनाव को देखते हुए विपक्ष ने ‘इंडिया’ फ्रंट बनाकर मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। इसलिए बिना किसी के ध्यान में आए, आरएसएस के थिंक टैंक ने ‘इंडिया’ नाम को ही एक अलग स्तर पर ले जाना शुरू किया है।

राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के दस्तावेज़ जारी होने से बहस छिड़ गई। लेकिन, ये सब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के भाषण से शुरू हुआ। मोहन भागवत ने 1 सितंबर 2022 को गुवाहाटी में जैन समाज के एक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा था कि हमारे देश का नाम सदियों से भारत ही रहा है। सभी व्यावहारिक स्थानों पर इसे भारत ही कहा जाना चाहिए। कुछ दिन बाद पता चला कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने अपने पत्रों में भारत का जिक्र किया।

दरअसल, जब देश में जी-20 जैसा महत्वपूर्ण सम्मेलन हो रहा है, तो क्या यह विषय जरूरी था? यदि हां, तो क्यों जरूरी था? ऐसे सवाल उठते हैं। लेकिन जब देश में महंगाई, बेरोजगारी, मणिपुर, अडानी के वित्तीय मामलों पर आपत्ति जैसे कई मुद्दे हों, तो देश की मीडिया में चर्चा का मुख्य विषय बनना कोई साधारण बात नहीं है।

अब सवाल यह है कि भारत अब अवांछनीय क्यों हो गया है? अब तक हिंदी, मराठी समेत कई भारतीय भाषाओं में बात करते समय ‘भारत’ का जिक्र जरूर होता है। लेकिन अंग्रेजी में लिखते समय उसका उल्लेख ‘इंडिया’ के रूप में किया जाता है। अभी तक किसी को भी इससे कोई परेशानी नहीं हुई है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक की जिद कि एक ही नाम भारत होना चाहिए और फिर तुरंत राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री द्वारा अपने दस्तावेजों में अंग्रेजी में भारत लिखने से पूरे देश में संदेह का माहौल पैदा हो गया है।

दरअसल, अंग्रेजी में ‘भारत’ लिखना संवैधानिक रूप से गलत नहीं है। यह रिवाज ही नहीं था, अब ऐसा क्यों किया जा रहा है? तो फिर ‘इंडिया’ नाम का प्रयोग नहीं होगा? भारतीय रिज़र्व बैंक से लेकर इसरो तक, कई संस्थानों के नाम में भारत का क्या लेना-देना? इससे भी अधिक जटिल बात यह है कि मुद्रा नोटों पर भारत के उल्लेख के बारे में क्या? क्या फिर नोट बदलने को लेकर होगी असमंजस की स्थिति? इन सभी मुद्दों पर सत्ता पक्ष की ओर से कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है। देश को बिना कोई जानकारी दिए किसी संवैधानिक मामले में दखल देना, उसमें मनमर्जी से छेड़छाड़ करना, मनमर्जी से फैसले लेना न सिर्फ अस्वीकार्य है, बल्कि कानूनी तौर पर भी गलत है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों को सीधे तौर पर उठाना न सिर्फ देश को ‘भारत’ बनाने की दिशा में उठाया गया कदम है, बल्कि इस बात की प्रबल आशंका है कि इसके पीछे पहचान की राजनीति और विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन की पृष्ठभूमि है। 18 सितंबर से संसद का विशेष सत्र बुलाया गया है। यह वही तारीख है, जिस दिन संविधान सभा ने देश के नाम पर चर्चा की थी। इसीलिए संकेत हैं कि इस सम्मेलन में देश के नाम को लेकर भी प्रस्ताव रखा जाएगा।

भाजपा सरकार और आरएसएस की राह में मुख्य बाधा भारत का संविधान है। जैसे-जैसे भारतीय राष्ट्रवाद की ताकत और प्रभाव बढ़ता गया, इन लोगों ने मनुस्मृति और उसके कानूनों का महिमामंडन करना शुरू कर दिया और अल्पसंख्यक समुदाय को देश का ‘आंतरिक दुश्मन’ कहना शुरू कर दिया। भारत के संविधान का विरोध उनकी राजनीति का हिस्सा है, ऐसा पहले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख के. सुदर्शन ने समझाया था। उन्होंने कहा था कि संविधान देश की जनता के किसी काम का नहीं है। बेशक, इस विचारधारा की पार्टी संवैधानिक तरीकों से कुछ भी हल नहीं करना चाहती।

जब कोई भी चीज नीरस होती है, तो वह सरल तो लगती है, लेकिन साथ ही वह कई चीजों को खारिज भी कर देती है। इसका हम एक सरल उदाहरण लें। यदि हम इस बात पर जोर देते हैं कि कृष्ण को कृष्ण कहा जाना चाहिए। मत कहो श्याम, मत कहो बंसीधर, मत कहो कान्हा, मत कहो गोपाल! इसलिए हम कृष्ण के अलावा अन्य नामों से जुड़ी भावनाओं को अस्वीकार करते हैं। भारत के कई नाम भी हैं जैसे मेलुहा, हिंद, इंडिया, जम्बूद्वीप, आर्यावर्त! दरअसल, वे उत्तर भारत पर भी प्रकाश डालते हैं। लेकिन जब भावनाओं की बात आती है, तो तर्क काम नहीं करता। इसीलिए अब ‘इंडिया” नाम की जिद तर्क का नहीं बल्कि भावना का विषय है। कुछ समय के लिए भावनाओं को भड़काना अच्छा हो सकता है, लेकिन इससे देश को दीर्घकालिक नुकसान ही होगा।

दुनिया भर के देश भारत को अपनी भाषा के रूप में जानते हैं। आज चीन भारत को ‘इंदु’ के नाम से पहचानता है, संयुक्त राष्ट्र में इसे ‘इंडे’ के रूप में लिखा जाता है। हमें इस विविधता की आवश्यकता क्यों है? खैर, इन सबके अलावा यदि ‘इंडिया’ नाम को स्वीकार किया जाए, तो उसके लिए भी संविधान संशोधन का प्रावधान किया गया है। लेकिन क्या हुक्मरानों को इस बात का एहसास नहीं होना चाहिए कि ऐसा करने से, जनता से संवाद किए बगैर फैसले लेने से देश में गलत संदेश जाता है? इसलिए मसला सिर्फ नाम बदलने का नहीं, बल्कि अतिवादी जिद का है। एक देश एक चुनाव, एक देश एक भाषा…. आदि कहकर क्या हम अपने देश की विविधता को नकार नहीं रहे हैं? ये सवाल लगातार पूछा जाना चाहिए। क्योंकि सर्वसमावेशकता ही इस देश की संस्कृति की आत्मा है। अगर उन्होंने इसे खारिज कर दिया, तो चाहे कितने भी नाम बदल लें, इसका कोई मतलब नहीं होगा, हर किसी के लिए, खासकर भाजपा और उसके मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए! खुद टीम को संज्ञान लेना चाहिए।

प्रकाश पोहरे
(सम्पादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिन्दी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
98225 93921

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