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सरकारी ‘बाबुओं’ की ‘खाउगिरी’ पर आखिर कितना खर्च करें?

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प्रकाश पोहरे, प्रधान संपादक, दैनिक ‘देशोन्नती’, हिंदी दैनिक ‘राष्ट्र प्रकाश’, साप्ताहिक ‘कृष्णकोणती’

सातवें वेतन आयोग द्वारा अनुशंसित वेतन वृद्धि जारी करने से पहले, राज्य सरकार के खजाने में सालाना 1 लाख 2 हजार 668 करोड़ रुपये सरकारी नौकरी कर रहे बाबुओं के वेतन पर और 27 हजार 378 करोड़ रुपये सेवानिवृत्ति वेतन पर खर्च होते रहे। यानी विभिन्न करों से सरकार द्वारा एकत्रित धन का 80 प्रतिशत केवल वेतन पर खर्च होता रहा और बची हुई रकम भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती रहीं। अर्थात उसी सरकार के ‘बाबुओं’ की ‘खाउगिरी”पर खर्च होती रहीं। नतीजतन, विकास के लिए पैसा नहीं बचता था। इसलिए सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के नाम पर राज्य पर कर्ज का पहाड़ खड़ा कर दिया। फिर सातवां वेतन आयोग लागू हुआ, तो सर्वत्र खुशी ही खुशी! यानी घर में ही थोडा हो गया ऊपर से दामाद घोड़े पर सवार हो गया… अथवा ‘आमदनी अठन्नी, खर्च रुपैया!’ पहले के खर्च में करीब 26 हजार करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हो गई। यानी बहुसंख्यक लापरवाह, भ्रष्ट और निकम्मी नौकरशाही का पेट भरने के लिए सरकार ने तरह-तरह के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के जरिए जनता की जेबें लूटीं और सिर्फ सरकारी कर्मचारियों के लिए लोगों से 1 लाख 56 हजार करोड़ रुपये वसूले। यानी आम लोगों, किसानों, मजदूरों ने इस नौकरशाही को पालने-पोसने और खिलाने के लिए ही पसीना बहाया। हालांकि, अब महाराष्ट्र में सरकारी कर्मचारी पुरानी पेंशन योजना को लागू करने की मांग को लेकर हड़ताल पर चले गए हैं। वे 2004 के बाद घोषित नई पेंशन योजना नहीं चाहते हैं। पुरानी पेंशन योजना पर ये सरकारी कर्मचारी जोर क्यों दे रहे? क्योंकि पुरानी पेंशन योजना के अनुसार, सेवानिवृत्ति के समय कर्मचारी के वेतन का आधा हिस्सा कर्मचारी को पेंशन के रूप में दिया जाता है।

उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति की सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति के समय का वेतन 2 लाख रुपये है, तो उसकी सेवानिवृत्ति के बाद की पेंशन 1 लाख रुपये होती है। पुरानी पेंशन योजना के तहत सेवानिवृत्त कर्मचारी की मृत्यु होने पर यह पेंशन उसकी पत्नी को उसके जीवित रहने तक दी जाती है। इस पेंशन से कोई कटौती नहीं की जाती है। पुरानी पेंशन योजना के तहत कर्मचारी के सेवानिवृत होने पर भी कर्मचारी को चिकित्सा भत्ता एवं चिकित्सा बिल प्रतिपूर्ति की सुविधा दी जाती थी। इस योजना के तहत एक कर्मचारी को 20 लाख रुपए तक की ग्रेच्युटी दी जाती थी। हालाँकि, नई पेंशन योजना के तहत, सरकारी कर्मचारियों के वेतन से 10 प्रतिशत की कटौती की जाती है और सरकार स्वयं का 10 प्रतिशत योगदान करती है। संचित राशि का 60 प्रतिशत एक मुश्त राशि के रूप में कर्मचारी को दिया जाता है और शेष 40 प्रतिशत पेंशन के रूप में प्राप्त होता रहता है। नई पेंशन योजना में सेवानिवृत्ति के बाद कितनी पेंशन मिलेगी? इसकी राशि निश्चित नहीं है। पुरानी पेंशन योजना में सेवानिवृत्त कर्मचारियों का वेतन सरकारी खजाने से दिया जाता था। लेकिन नई पेंशन योजना में यह शेयर बाजार पर निर्भर करता है। इसलिए इसमें टैक्स का भी प्रावधान है। नई पेंशन योजना में छह माह के बाद महंगाई भत्ता मिलने का प्रावधान नहीं है। इसको लेकर कर्मचारी हड़ताल पर चले गए हैं।

दरअसल, हमारे देश में सरकारी कर्मचारियों की सैलरी तय करने के लिए वेतन आयोग होता है। हर दस साल में नया वेतन आयोग लागू होता है। भोजन, कपड़ा, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी कर्मचारियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए न्यूनतम वेतन 18,000 रुपये है। हालाँकि, एक किसान या एक विशिष्ट परिवार के निर्वाह में भी उतना ही खर्च होता है। यदि अधिक नहीं, तो जो न्याय नौकरशाही वर्ग को मिलता है, वही न्याय दूसरों को क्यों नहीं मिलता? किसान जंगली सूअर, सांप और अन्य जंगली जानवरों के डर से भीषण गर्मी में दिन-रात काम करेंगे और अपने बुढ़ापे में संजय गांधी निराधार योजना के 1,000 रुपये का इंतजार करेंगे और बिना काम किए इन सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों को वृद्धावस्था में घर बैठे-बैठे 30 से 40 हजार रुपए मिलेंगे। इससे सरकारी खजाने पर भार पड़ेगा ही। क्या यह समान न्याय है?

अब देखते हैं कि सरकारी अधिकारी और कर्मचारी कितने दिन काम करते हैं और उन्हें कितने दिन का वेतन मिलता है! इसमें एक वर्ष में 365 दिन होते हैं। रविवार और शनिवार को पांच दिन के सप्ताह के रूप में 105 दिन बीत जाते हैं। त्योहारों, राष्ट्रीय पर्वों आदि के लिए कम से कम 15 दिन की छुट्टी यानी 15 दिन और चले जाते हैं। यहां तक ​​​​कि यह मानते हुए भी कि कोई छुट्टी नहीं ली गई, वह साल में 120 दिन है, जो लगभग 4 महीने बिना काम के हैं, लेकिन पूरे 365 दिनों का वेतन इन्हें मिलता है। इसके अलावा इन्हें मिलता है ‘लक्ष्मी दर्शन’, …जो इनके काम का एक अनिवार्य हिस्सा होता है! ऐसी परिस्थितियों में पूरी क्षमता, स्वच्छ और ईमानदारी से काम करने की उम्मीद करने में कोई बुराई नहीं है! इसके अपवाद स्वरूप पुलिस, अग्निशमन, परिवहन, चिकित्सा कर्मी हैं, जिन्हें भारी रियायतें नहीं मिलती हैं।

उनकी प्रतिबद्धता और जिम्मेदारी 24 बॉय 7 है। वे किसी भी सूरत में काम की जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते। यह एक विषम स्थिति है, जहां अधिकांश अधिकारी और कर्मचारी विलासिता में हैं, जबकि कुछ काम के बोझ तले दबे हुए हैं। नीति ऐसी बनानी चाहिए थी कि काम करने वालों को ही पूरे वेतन का लाभ मिले। हालांकि, सरकार द्वारा इतनी मजबूत नीति लागू न करने और मनचाहा लाड़-प्यार करने की आदत हो जाने के कारण आज सरकार भी अफसरशाही के आगे बेबस नजर आ रही है।

जनप्रतिनिधियों को हर पांच साल में मतदाताओं की कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है, जबकि नौकरशाहों को नहीं! चुनाव से पहले सरकार को घेरने के लिए संगठित नौकरशाही की एक ‘महान’ परंपरा है। सातवें वेतन आयोग कहे जाने वाले मक्खन के गोले को घसीटते हुए भी उस परंपरा का ईमानदारी से पालन किया गया है। सरकार जो भी योजनाओं की घोषणा करती है, उसका लाभ लोगों तक पहुंचाना नौकरशाही की जिम्मेदारी होती है, लेकिन नौकरशाही ठीक से उस जिम्मेदारी को निभाने में पूरी तरह विफल रही है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि नौकरशाही काफी हद तक निष्क्रिय, भ्रष्ट और अधिक गंभीर रूप से असंवेदनशील है। कटु-सत्य यही है कि बिना रिश्वत दिए प्रशासन का किसी भी स्तर पर कोई काम नहीं होता है और सभी का संगठित अत्याचार अधिकांश भारतीय नौकरशाहों की पहचान बन गया है। अधिकांश नौकरशाहों को यह घमंड हो गया है कि वे जनता के नौकर नहीं, बल्कि मालिक हैं!

सही मायनों में जिस तरह पुराने जमाने में 3 प्रतिशत पेशवाओं का नियंत्रण सभी लोगों पर होता था, उसी तरह अब केवल 3 प्रतिशत नौकरशाहों का पूरे भारत पर नियंत्रण है। 1956 में पहले वेतन आयोग में एक चपरासी का न्यूनतम वेतन 50 रुपये था। 1966 में दूसरे वेतन आयोग में, न्यूनतम वेतन 150 रुपए हुआ। अर्थात इसमें 3 गुना की बढ़ोतरी हुई। 1976 में तीसरे वेतन आयोग में इनका न्यूनतम वेतन 450 रुपये हो गया। यानी फिर से 3 गुना बढ़ोतरी हुई। 1984 में चौथे वेतन आयोग में इनका न्यूनतम वेतन 1200 रुपये हो गया। यानी एक बार फिर 3 गुना बढ़ोतरी हुई। 1996 में पांचवें वेतन आयोग में न्यूनतम वेतन 2,550 रुपए हो गया। यानी 2 गुना बढ़ोतरी हुई। 2006 में छठे वेतन आयोग में इनका न्यूनतम वेतन 7,000 रुपये हुआ। यानी फिर 3 गुना बढ़ोतरी हुई। 2016 में आए 7 वें वेतन आयोग में इनका न्यूनतम वेतन 18,000 रुपए हो गया। अर्थात यह लगभग 3 गुना बढ़ गया। जबकि 1976 में गेहूं की कीमत 90 रुपए थी। वह आज 1700 रु. हैं। यानी अगर अनाज की कीमत 19 गुना बढ़ी है, जबकि सरकारी कर्मियों का वेतन 150 से 350 गुना बढ़ गया है। फिर भी यही कर्मचारी सब्जी खरीदते समय किसानों से झंझट करते हैं! इतनी भयानक सामाजिक और आर्थिक विषमता को इसी एक मुद्दे ने उजागर किया है।

देश भर के सभी सरकारी कर्मचारी अब आठवें वेतन आयोग 2026 का सपना देख रहे हैं। 8वें वेतन आयोग का न्यूनतम वेतन 45 हजार रुपये प्रति माह या उससे अधिक ही होगा। यानी उसकी तुलना में पेंशन भी बढ़ेगी। उदाहरण के लिए 40,000 रुपये के वेतन पर आज सेवानिवृत्त होने वाले कर्मचारी को 20,000 रुपये प्रति माह पेंशन मिलेगी, उसी कर्मचारी का वेतन 2026 के बाद कम से कम 1 लाख रुपये से अधिक होगा। यानी वह कम से कम 50 हजार रुपए प्रतिमाह की पेंशन का हकदार होगा! वह भी घर बैठे, बिना कुछ किए…!! इसी कारण अब अचानक पुरानी पेंशन योजना की मांग उठने लगी है। ऐसा लगता है, जैसे ये लोग (सरकारी कर्मी) काम करके सरकार पर मानो एहसान कर रहे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में नौकरशाही हड़ताल पर चली गई है।

यहां असल सवाल यह है कि क्या राज्य और केंद्र सरकार के पास इतना पैसा है कि वे इतना भुगतान कर सकें? जब सातवां वेतन आयोग लागू हुआ था, तो खबर आई थी कि केंद्र सरकार पर उसके एक करोड़ कर्मचारियों के चलते एक लाख दो हजार करोड़ रुपये का बोझ बढ़ जाएगा। केंद्र सरकार की तरह राज्य सरकारें भी वेतन बढ़ाती हैं। केंद्र और राज्य का कुल बोझ चार लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है। यह बढ़ा हुआ खर्च महंगाई नहीं बढ़ाता, लेकिन अगर किसानों की कृषि उपज का दाम बढ़ा दिया जाए, तो महंगाई बढ़ जाती है! सरकार का यह दोगलापन जगजाहिर है।

वास्तव में, इस समय इस देश की सबसे बड़ी समस्या सुशिक्षित बेरोजगारी और किसानों को उनकी उपज का मूल्य न मिलना ही है। इसलिए पढ़े-लिखे बेरोजगार और किसान दोनों को एक साथ आना चाहिए और नौकरशाही की इस देश में बनाई गई नीरस तस्वीर के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए। क्योंकि वर्तमान नौकरशाही, सारा घी अपनी ही रोटियों पर उँड़ेल रही है और ऊपर से रबड़ी-जलेबी की मांग भी कर रही है। इस देश में जब करोड़ों लोग बेरोजगार हैं, किसान उचित मूल्य न मिलने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं, देश का खजाना खाली है और राज्य कर्ज के विशाल पहाड़ से दबा हुआ है, नौकरशाही को पुरानी पेंशन चाहिए, तो इसे असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा। ऐसी असंवेदनशील नौकरशाही की मुश्कें बांधने के लिए सरकार को अब सिर्फ इतना करना चाहिए कि महाराष्ट्र के उन डेढ़ करोड़ बेरोजगार युवाओं को मौका दिया जाए, जो मौजूदा कर्मचारियों के आधे वेतन पर भी काम करने को तैयार हैं। क्योंकि कम से कम इस हड़ताल से तो यही देखा जा सकता है कि स्थापित नौकरशाही में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसका मिट्टी से कोई नाता हो! तो सरकार को मुलाहिजा नहीं करना चाहिए..! क्योंकि, सरकार के इन ‘बाबुओं’ की ‘खाउगिरी’ पर आखिर कितना खर्च किया जाए? इस देश के नागरिकों, किसानों और बेरोजगार युवाओं को इस बारे में भी सोचना चाहिए।

– प्रकाश पोहरे
(संपादक– मराठी दैनिक देशोन्नति, हिन्दी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
संपर्क : 98225 93921
2prakashpohare@gmail.com

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