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‘मुफ़्त’ न दें… कार्यकुशलता को सम्मान दें!

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

हमारे यहां अर्थशास्त्र में एक कहावत है कि ‘भारतीय बजट मानसून पर जुआ है।’ इसका अर्थ यह है, ‘यदि वर्षा अच्छी हो, तो राजा न्यायप्रिय होता है, यदि वर्षा अच्छी न हो तो राजा दुष्ट होता है’! दुनिया की राजनीति या अर्थशास्त्र चाहे जो भी हो, आम आदमी अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन ‘मेरा परिवार कैसा चल रहा है’ से करता है। यह समझा जाना चाहिए कि यह सामान्य इन्सान की सामान्यता है। उनसे बुद्धिजीवी होने की उम्मीद करना व्यर्थ है, इसलिए वही असली नेता हैं जो लोगों को मुफ्त का प्रलोभन देने के बजाय तथ्यों का एहसास कराएं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आज ऐसे नेता हैं या हमने गलत लोगों को बैठा दिया है….!  सच कहें तो असली अपराधी वे हैं, जो बंदर के हाथ में उस्तरा दे देते हैं!

करदाताओं के पैसे के ट्रस्टी के रूप में कार्य करने के बजाय, सरकारें इसका ऐसे उल्लंघन कर रही हैं, जैसे कि यह ‘बम्परसेल’ हो और इसे ऐसे घोषित कर रही है जैसे कि यह अपने बाप (क्षमा करें) ‘पिताश्री’ का पैसा है। नए उद्योग और परियोजनाएँ कैसे शुरू होंगी और रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ेंगे, नौकरियाँ कैसे कायम होंगी, यह देखने के बजाय, नए विचारों के लिए लड़ने और धन सृजन के स्रोत खोजने के बजाय, हम धन बेचने या वितरित करने का कार्यक्रम अपना रहे हैं। हमारे गरीब लोगों को सबसे ऊंची कीमत पर, यह सब समयपूर्व दिवालियापन का एक रूप है या स्वार्थ लोकप्रियता हासिल करने का तरीका है।  हर कोई सरकारी नौकरी चाहता है और यह उन्हें आरक्षण से मिलेगी, इसलिए उसके लिए धरने-प्रदर्शन और आंदोलन करते हैं। मूलतः यह बात कोई समझने को तैयार नहीं है कि जहां सत्ताधारियों द्वारा सरकारी गतिविधियां बंद करने या बेचने से सरकारी नौकरियाँ ख़त्म हो गई हैं, वहाँ आरक्षण का क्या फ़ायदा?

वहीं, महाराष्ट्र में भी शासक रोजगार नहीं दे सकते, लेकिन वोटरों में पैसे बांटने के लिए तैयार है. ऐसा करने का उद्देश्य जन कल्याण नहीं, बल्कि करदाताओं के पैसे से वोट खरीदना है। चूंकि विधानसभा चुनाव जीतना है, इसीलिए सरकारी पैसों की बंदरबांट शुरु की गयी है। महिलाओं को प्रति माह 1,500 रुपये और ‘लाडली बहना’ के लुभावने नाम पर, किसानों को पीएम किसान सम्मान निधि के 6,000 रुपये देने से राज्य की आय में वृद्धि हुई है, का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। यह एक प्रकार से पारदर्शी पुंगली में सीरीज भरकर बिजली चमकाने जैसा है।

युवाओं को कृषि या उद्योग में अच्छे अवसर प्रदान करना और उनकी रचनात्मकता और कार्यशैली को प्रोत्साहित करके देश का विकास करना ही बुद्धिमानी है। चीन ने ऐसा ही किया। यहां तक ​​कि उससे पहले परमाणु बम से तबाह हुए जापान ने भी जनशक्ति को प्रेरणा देकर आश्चर्यजनक प्रगति की। लेकिन हम अभी भी आसान और दिवालिया रास्तों पर हैं, जो भयानक खाई की ओर ले जाते हैं! करदाताओं के पैसे का उपयोग देश के समग्र विकास के लिए किया जाना चाहिए, इस उद्देश्य के लिए समग्र आर्थिक और औद्योगिक प्रगति स्व-गति से होनी चाहिए। निवेश को आकर्षित करना, उद्योग के अनुकूल वातावरण बनाना, सेवा क्षेत्र में रचनात्मक रूप से नई दुकानें खोलना, पर्यटन को बढ़ावा देना चाहिए। अच्छी कानून व्यवस्था बनाए रखना, प्रशासनिक व्यवस्था को भ्रष्टाचार मुक्त, आर्थिक बनाना चाहिए. यह सच है कि सुधारों को गति देना सरकारी संस्थानों का काम है, लेकिन इस चुनौती को डबल/ट्रिपल इंजन वाली इस भ्रष्ट सरकार से पूरा करना संभव नहीं है, बल्कि ‘रेवड़ी’ बांटकर ‘बम्परसेल’ यानी ‘राजनीतिक दुकानदारी’ का खेल नेताओं ने खेला है….! अब उन्हें यह बताने का समय आ गया है कि ऐसी भीख बांटने की योजना बनाने से देश दिवालिया हो रहा है।

‘जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां…’ यदि स्थिति ऐसी है, तो जहाज में यात्रियों का यह कर्तव्य बन जाता है कि वे इस बात का ध्यान रखें कि जिस जहाज में हम यात्रा कर रहे हैं, वह किसी चट्टान से न टकराएं…!

भारतीय अर्थव्यवस्था में बैंकों की बिगड़ती वित्तीय स्थिति, देश में बेरोजगारी, नशाखोरी आदि में सुधार होने के बजाय 2024 में बेरोजगारी की दर 112 प्रतिशत बढ़ गई है। यानी 2014 की तुलना में दोगुने से भी ज्यादा। बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) का बोझ नौ गुना बढ़ गया है। अत: यह निराशावादी चित्र निर्मित होता है। देश के वर्तमान दैनिक राजस्व व्यय को पूरा करने और भविष्य की पीढ़ियों के लिए बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए लाखों नागरिक आयकर के रूप में प्रत्यक्ष कर का भुगतान करते हैं और करोड़ों लोग, यहां तक ​​कि भिखारी भी, जीएसटी के रूप में अप्रत्यक्ष कर का भुगतान करते हैं. …लेकिन हाल ही में ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों में ‘अमीर’ होने की होड़-सी लग गई है। वर्तमान में इन डबल और ट्रिपल इंजन वालों ने दूसरे की ‘रेवड़ी’ और अपनी ‘गारंटी’ में सुविधाजनक अंतर करके पैसे उड़ाने का तरीका अपना लिया है। महाराष्ट्र में ‘लाडली बहन’ योजना की घोषणा के बाद अब युवा, शिक्षित लोगों को 6,000 से 10,000 या किसी को 12,000 की राशि दी जाएगी। बुजुर्गों को तीर्थयात्रा करने के लिए तीस हजार रुपये दिए जाएंगे। इसके अलावा कई मृगतृष्णा योजनाओं की भी घोषणा की गई है। इनके अलावा पुरानी योजनाएं तो हैं ही। हाल के लोकसभा चुनावों में भी सीधे वित्तीय सहायता का वादा करने की होड़ देखी गई और सबसे गंभीर बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल इसका विरोध करने आगे नहीं आ रहा है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के गुणात्मक मूल्यांकन के लिए 2014 से 2024 तक की दस साल की यात्रा पर नजर डालने पर पता चलता है कि अर्थव्यवस्था एक गंभीर संक्रमण के दौर से गुजर चुकी है। जो देश पूंजीवादी व्यवस्था को अपनाता है, वह सदैव विश्व की घटनाओं से प्रभावित होता है। 2014 में भारत की जनसंख्या 129 करोड़ थी, 2024 के अंत तक यह बढ़कर 140 करोड़ हो गई है। भारत की केवल 3 प्रतिशत आबादी आयकर देती थी, जो आज थोड़ा बढ़कर मुश्किल से 5 प्रतिशत हो गई है। इसकी वजह यह है कि टैक्स दरें बहुत ज्यादा हैं। आयकर की संरचना उन लोगों के लिए गलत है, जो पेशेवरों या आम लोगों के लिए लगभग 35 प्रतिशत और बड़ी प्रिय कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए 25 प्रतिशत आयकर का भुगतान करते हैं। वहीं, दूसरी ओर आम लोगों के लिए 28 फीसदी तक जीएसटी? इससे लोगों की टैक्स देने की मानसिकता खत्म हो गयी है। इसके बजाय, इन दरों को कम करना और उद्यमिता के लिए गुंजाइश प्रदान करना आवश्यक है। साथ ही जीएसटी दरों को कम करना और कर चोरी की मानसिकता से निपटना आवश्यक है। चाणक्य ने कहा था कि टैक्स तो आटे में नमक जैसा होना चाहिए, लेकिन यहां तो नमक में आटे’ जैसी टैक्स व्यवस्था देश में चल रही है। हालाँकि, यदि कर की दर बढ़ाई जाती है, तो सरकार अधिक राजस्व एकत्र करेगी और विकास कार्यों के लिए बजट में अधिक प्रावधान किया जा सकता है। वर्तमान स्थिति में, महाराष्ट्र सरकार को 2014 में कुल प्रत्यक्ष करों से 6 लाख करोड़ रुपये मिले थे, आज यह केवल 7 लाख करोड़ रुपये के आसपास है।

संक्षेप में, अमीर और गरीब टूथपेस्ट के लिए समान राशि का भुगतान करते हैं, क्योंकि अप्रत्यक्ष कर दोनों के लिए समान है। दरअसल, एक गरीब व्यक्ति को अपनी आय के कारण सस्ते दाम पर टूथपेस्ट मिल जाना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। इसलिए हम इसे ‘प्रतिगामी कराधान’ मानते हैं। माना जा रहा था कि जीएसटी प्रणाली कर चोरी को कठिन बनाएगी, लेकिन जीएसटी की भयानक दर के कारण जीएसटी की चोरी की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। डिस्पेंसरी, मेडिकल, मॉल, किराना स्टोर, अन्य थोक और चिल्लर विक्रेता अनजाने में जीएसटी से बच रहे हैं, क्योंकि व्यवसाय में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। सबसे गंभीर बात यह है कि कृषि उपज, खाने-पीने की वस्तुओं यहां तक ​​कि दूध, दही और छाछ पर भी जीएसटी लगाना मूर्खता और अत्याचार की सीमा तक पहुंच गया है।

अब बैंकों की स्थिति कैसी है? वैसे तो भारतीय बैंकों की स्थिति मजबूत होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। क्योंकि उन्होंने व्यवसायों को बड़े पैमाने पर दीर्घकालिक ऋण दिए हैं और गैर-निष्पादित ऋण बढ़कर 682 प्रतिशत (एनपीए – गैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ) हो गए हैं। ( वर्ष 2014 में 2.24 लाख करोड़ और 2024 में 20 लाख करोड़)। हम अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक का लंबे समय से बकाया चुकाने में भी विफल रहे हैं। 2014 की तुलना में विदेशी उधार में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई है (2024 में 461 बिलियन डॉलर से 664 बिलियन डॉलर)। इसमें अगर घरेलू कर्ज पर नजर डालें, तो जो 2014 में 50 लाख करोड़ था, वह अब चार गुना बढ़कर 208 लाख करोड़ हो गया है। महाराष्ट्र में 2014 में यह 55 हजार करोड़ था और अब यह बढ़कर 8 लाख करोड़ यानी सोलह गुना हो गया है। संक्षेप में, भारत की अर्थव्यवस्था की गति अभी भी ‘कर्ज’ पर निर्भर है और हम ‘आजाद’ होने का दावा कर रहे हैं। यानी कर्ज लेकर जश्न मनाने का यह एक तरीका है!

2014 में देश की बेरोजगारी दर 3.4 फीसदी थी, 2024 में यह बढ़कर 12 फीसदी हो गई है। भारत में प्रच्छन्न बेरोजगारी बहुत अधिक है। इसका मतलब यह है कि चपरासी के पद के लिए इंजीनियरिंग या अन्य तकनीकी स्नातक आवेदन करते हैं, तो इसके लिए लंबी कतारें लगती हैं, क्योंकि किसी के पास पर्याप्त नौकरियां उपलब्ध नहीं होती हैं। इसका समाधान लोगों को रोजगार प्रदान करना, उन्हें व्यावसायिक ऋण या नौकरी पाने के लिए तकनीकी प्रशिक्षण आदि प्रदान करना है। यही कारण है कि देश स्तर पर सबसे पहले ‘मुद्रा लोन’ और ‘स्किल इंडिया’ जैसी पहल की गई, लेकिन इन्हें अभी तक ज्यादा सफलता नहीं मिल पाई है, क्योंकि या तो वास्तविक काम की उपलब्धता कम है, शिक्षा का स्तर कम है व स्कूलों, कॉलेजों में शिक्षा दी जानी बंद हो गई है और कहीं भी कौशल नहीं सिखाया जा रहा है। इसके लिए कुछ भारतीय उपाय करने होंगे। इस सवाल का जवाब सिर्फ भारत में ही मिलेगा। जैसे सूक्ष्म, लघु, मध्यम उद्यमों के लिए अलग बजट, उद्यमों के लिए कम ब्याज दरों पर युवा ऋण, किसानों को साल भर विभिन्न फसलें उगाने के लिए पानी और बिजली और उनकी कृषि उपज का उचित मूल्य मिलना। कृषि के साथ गठजोड़ का उद्देश्य भारतीय स्वाद आधारित प्रसंस्करण सुविधाएं प्रदान करना और इसे घरेलू और विदेशी बाजारों में लाना है। तभी रोजगार मिलेगा और तभी देश आगे बढ़ेगा। अगर काम करने वाले हाथों को मुफ्त में खाना देते रहेंगे, तो वे आलसी और आदी हो जाएंगे। यह समझना होगा कि ऐसा करने वाला होनोलूलू जैसा देश कैसे रसातल में डूब गया है!

घरेलू ‘जुगाड़ू’ उपायों से बेरोजगारी पर लगाम लगाई जा सकती है। यहां मैं ‘जुगाड़’ शब्द का प्रयोग उपहास के तौर पर नहीं कर रहा हूं, बल्कि यह भारतीय व्यवस्था की प्राणवायु है। एक भारतीय व्यक्ति विदेशों में महँगा काम भी कर सकता है और आवश्यकतानुसार बहुत कम पूंजी में भी, उचित स्वदेशी परिवर्तन करके कर सकता है और यही हमारी ताकत है। तुकाराम गाथा कहते हैं, ‘जोडोनिया धन उत्तम वेव्हारे, दुखद विचारों से छुटकारा पाएं..’

भारतीय मनुष्य सैकड़ों वर्षों से इसी विचार के साथ काम कर रहा है। उसे ‘मुफ्त’ में नहीं चाहिए…., लेकिन जो अपने स्वार्थ के लिए सत्ता की कुर्सी नहीं छोड़ना चाहता, उसे तो लात मारनी ही पड़ेगी…!

लेखक : प्रकाश पोहरे

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(प्रकाश पोहरे से सीधे 98225 93921 पर संपर्क करें या इसी व्हाट्सएप पर अपनी प्रतिक्रिया भेजें. कृपया प्रतिक्रिया देते समय अपना नाम-पता लिखना न भूलें)

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